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नागरीप्रचारिणी पत्रिका में प्रकट होता है और उसके उद्भव तथा विकास का ठीक ठीक पता भी चल जाता है। परंतु पश्चिम के पंडितों ने सूफीमत के विवेचन में, उसके मूल स्रोत की उपेक्षा कर, या तो उसके इसलामी स्वरूप अथवा केवल उसके प्रार्य-संस्कार पर ही अधिक ध्यान दिया है। जिन मनीषियों ने निष्पक्ष भाव से सूफीमत के उद्भव के विषय में जिज्ञासा की है उनके निष्कर्ष भी प्रायः भ्रमात्मक ही रहे हैं। संस्कार लाख प्रयत्न करने पर भी अपनी झलक दिखा ही जाते हैं। अत: किसी मत के विवेचन में संस्कारों का बड़ा महत्त्व होता है। उन्हीं के परिचय के आधार पर किसी मत के सच्चे स्वरूप का आभास दिया जा सकता है। सूफीमत इसलाम का एक प्रधान अंग माना जाता है। यद्यपि अनेक सूफियों ने अपने को मुहम्मदी मत से अलग रखने की पूरी चेष्टा की तथापि उनके व्याख्यान में मुहम्मद साहब का पूरा प्रभाव दिखाई देता है। स्वयं मुहम्मद साहब अपने मत-इसलाम-को अति प्राचीन सिद्ध करते थे। उनका कहना था कि मूसा और मसीह के उपासकों ने इस प्राचीन-मत-इसलाम को भ्रष्ट कर दिया था; अत: अल्लाह ने उसके सच्चे स्वरूप के प्रकाशन के लिये मुहम्मद को अपना रसूल चुना। सूफियों में जिनका ध्यान मुहम्मद साहब की इस प्रवृत्ति की ओर गया उनको प्रादम' ही सर्वप्रथम सूफी दिखाई पड़े। किंतु जो सूफी मुहम्मद साहब को इसलाम का प्रवर्तक मानते हैं उनके विचार में अंतिम रसूल ही तसव्वुफ के भी विधाता थे । सूफियों को व्यापक विचार-धारा के लिये कुरान में पर्याप्त सामग्री न थी। निदान उनमें कुछ ऐसे प्रतिभाशाली व्यक्ति निकले जो हदीस के
आधार पर सिद्ध करने लगे कि गुह्य विद्या का प्रचार स्वयं मुहम्मद साहब ने नहीं किया। उन्होंने कपा कर उसका भार अली या
( 9 ) Studies in Tasawwuf p. 118
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