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नागरीप्रचारिणी पत्रिका सिनेमा जानेवाला लड़का कहता है कि "अब संध्या हो गई; पढ़ना समाप्त करना चाहिए" तो उसके व्यसन से परिचित श्रोता तुरंत उसके व्यंग्यार्थ को समझ जाता है। इस वाच्यार्थ में उसकी सिनेमा जाने की इच्छा छिपी हुई है। इस प्रकार यह वाच्यार्थ व्यंग्यार्थ का व्यंजक है। और वाच्यार्थ द्वारा घटित होने के कारण व्यंजना वाच्यसंभवा है। संध्या, पढ़ना आदि के स्थान में सायंकाल, अध्ययन आदि शब्द रख दें तो भी व्यंजना बनी रहेगी। वह शब्द पर नहीं, अर्थ पर आश्रित है।
लक्ष्यसंभवा जब लक्ष्य प्रर्थ में व्यंजना होती है, वह लक्ष्यसंभवा ( प्रार्थी व्यंजना) कहलाती है। कोई पिता अपने पुत्र के अयोग्य शिक्षक से कहता है कि अब लड़का बहुत अधिक सुधर गया है। विद्या ने उसे विनय भी सिखा दी है। मैं उसके आचरण से बड़ा प्रसन्न हूँ। विपरीत लक्षणा से इसका यह लक्ष्यार्थ निकलता है कि लड़का पहले से अब अधिक बिगड़ गया है। जो कुछ पढ़ा-लिखा है उससे भी उसने अविनय ही सीखी है। मैं उससे बिलकुल अप्रसन्न हूँ। इस लक्ष्यार्थ से श्रोतृ-वैशिष्ट्य द्वारा यह व्यंग्य सूचित होता है कि शिक्षक बड़ा अयोग्य है। यदि कोई दूसरा मनुष्य सुननेवाला होता तो यह व्यंजना न हो सकती। पिता शिक्षक से ही कह रहा है, इससे यह अभिप्राय निकल पाता है। यह व्यंग्य अभिप्राय लक्ष्यार्थ के द्वारा सामने आता है, अत: यहाँ लक्ष्यसंभवा प्रार्थी व्यंजना होती है। ___ इस प्रसंग में एक बात ध्यान देने की है कि जहाँ लक्ष्यसंभवा प्रार्थी व्यंजना होती है वहाँ लक्षणामूला शाब्दी व्यंजना भी रहती है। कारण यह है कि जो व्यंग्य लक्षणा का प्रयोजन होता है उसके लिये शाब्दी व्यंजना होती है और जो दूसरा व्यंग्य
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