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नागरीप्रचारिणी पत्रिका अर्थ-निर्णायक होता है। इन चौदह हेतुओं के अतिरिक्त अभिनय आदि भी शब्द के विशेष अर्थ के ज्ञान में साधक होते हैं।
इस प्रकार किसी न किसी हेतु के वश होकर जब शब्द एक ही अर्थ में नियमित हो जाता है तब भी यदि उस (शब्द) से कोई भिन्न अर्थ
अभिधामूला व्यंजना निकले तो उस अर्थ का कारण अभिधाकी परिभाषा मूला व्यंजना को समझना चाहिए। इस अर्थ का हेतु अभिधा नहीं हो सकती। वह तो पहले से ही एक अर्थ में नियंत्रित हो चुकी है। उदाहरणार्थ--
चिरजीवी जोरी, जुरै क्यों न सनेह गंभीर ।
को घटि, ए वृषभानुजा, वे हलधर के बीर ॥ बिहारी के इस दोहे में वृषभानुजा का अर्थ 'वृषभानु की लड़की राधा' और 'हलधर के बीर' का 'हलधारी बलराम का भाई कृष्ण' है। प्रकरण में यही अर्थ ठीक बैठता है अर्थात् प्रकरण ने वाच्यार्थ निश्चित कर दिया है। इस दोहे में इन शब्दों का कोई दूसरा मुख्यार्थ हो ही नहीं सकता। तो भी इन दोनों शब्दों से परिहास की व्यंजना हो रही है। राधा वृषभ की बहिन अर्थात् गाय हैं और कृष्ण हलधर ( बैल ) के भाई अर्थात् बैल हैं। गाय बैल की अच्छी जोड़ी बनी है ! इन दोनों शब्दों में से एक के भी हटा देने से यह ( परिहास की) व्यंजना न रह सकेगी। हलधर के स्थान में बलदेव अथवा अन्य कोई समानार्थक शब्द रखने से मुख्य अर्थ तो वही रहेगा पर यह व्यंग्यार्थ जाता रहेगा। इस प्रकार व्यंजना शब्द पर आश्रित होने के कारण शाब्दी है; और अभिधा द्वारा ही व्यंग्यार्थ भी निकल आता है इससे व्यंजना अभिधामूला है। यहाँ एक बात और ध्यान देने योग्य है। इन दोनी शब्दों में श्लेष नहीं है। श्लेष सा मालूम पड़ता है; पर प्राचार्यों के अनुसार श्लेषालंकार में दोनों अर्थ मुख्य होने चाहिएँ और यहाँ, जैसा हम
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