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नागरीप्रचारिणी पत्रिका देगा पर इतना हम प्रत्यक्ष व्यवहार में देखते हैं कि एक शब्द के वाच्यार्थ भी अनेक होते हैं। बहुत से व्यक्तिवाचक नाम और अनेक निर्योग धातुएँ तक अनेकार्थक होती हैं फिर यौगिक शब्दों का क्या पूछना है ? ऐसी दशा में प्रयुक्त शब्द का इष्ट अर्थ क्या है, यह निश्चित करने के लिये संयोगादिः अर्थ-नियामकों का विचार करना पड़ता है। किसी किसी शब्द का संयोग अर्थ नियमित कर देता है। हरि शब्द का विष्णु, शिव, इंद्र, सूर्य, बंदर, सिंह प्रादि अनेक अर्थों में व्यवहार होता है। पर जब 'हरि' के साथ शंख-चक्र का संयोग रहता है तो 'हरि' शब्द का अर्थ विष्णु ही होता है। कभी कभी विप्रयोग ( संयोग का विपर्यय ) भी शब्द के विशेषार्थ का निर्णय कर देता है। वज्र-हीन हरि से इंद्र का ही बोध होता है। वज्रवाले ( देव ) से ही वज्र का वियोग हो सकता है। साहचर्य और विरोध कभी कभी वाच्यार्थ निश्चित कर देते हैं। राधा के सहचर 'हरि' से सदा कृष्ण का
और मृग के विरोधी 'हरि' से सिंह का बोध होता है। कभी कभी अर्थ अर्थात् प्रयोजन का विचार वाच्यार्थ स्पष्ट कर देता है। 'स्थाणु' का अर्थ 'शिव' और 'खंभा' दोनों होता है, पर 'मुक्ति के लिये स्थाणु का भजन करो' में स्थाण से शिव का ही बोध होता है। मुक्ति का प्रयोजन शिव से ही सिद्ध हो सकता है। कहीं कहीं प्रकरण से अर्थ का निर्णय हो जाता है; जैसे सैंधव का अर्थ घोड़ा तथा नमक दोनों होता है, पर भोजन के प्रकरण में प्रयुक्त 'सैंधव' नमक का ही वाचक हो सकता है। (१) देखो-संयोगो विप्रयोगश्च साहचर्य विरोधिता।
अर्थः प्रकरणं लिङ्ग शब्दस्यान्यस्य सनिधिः॥ सामय मौचिती देश: कालो व्यक्तिः स्वरादयः । शब्दार्थस्यानवच्छेदे विशेषस्मृतिहेतवः ॥ (वाक्यपदीय)
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