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द्विगर्त (डुगर ) देश के कवि
३८७ भावार्थ-उपर प्रात:काल होते ही कुंवर वृजराजदेव सारे अश्वारोहियों को साथ ले व्यास नदी के पार चले गए।
सवैया दूर तें घूम निहार कोऊ जन चार कलेशर जाइ पुकारयो। सोए कहा उठि भागो सभी जमुपालन को दल लंधि सिधारयो। यो सुनि कोऊ न काहू को पूछत भागत नाम जगात्त सुहारयो । भागि गए जसुमाल कटोच तबै कछु और ना मंत्र विचारयो ॥२६॥
भावार्थ-किसी पुरुष ने दूर से धूल देखकर कलेशर में प्राकर पुकारा कि क्यों सोए हो, सब माग चलो। जमुमालो (जम्मू) की फौज नदी लांघ पाई है। यह बात सुनकर किसी ने किसी से नहीं पूछा और भागने लगे। इस तरह जसुमाल और कटोच ने भागने के बिना कोई मंत्र न विचारा।
आगे चलकर कवि ने कटोच और जसुवालो के भागने का एक कटात दिखलाया है। यथा
सवैया राखी रही कर बाण कुमाण तुणीरहु ते कटि तीर न साँधे । पाइ बनाइ बनाव के कोप बंदूकें भरी ते घरी रहिं कांधे ॥ कोष रहीं तरवारे सभी कुलवार पई जनु लाज के फाँधे । दत्त कटोचहु ते हथियार बनाइ के भूषण है तेहि बांधे ॥२७॥
भावार्थ-बाय-कमान और तीर पीठों पर ही बंधे रहे। पानाव के परदों में भरी बंदूके कंधे पर ही धरी रहों और तलवारें मी कोष के अंदर ही मानो तारों के लाज की मारे बंद रहीं। इस तरह कटोचो ने मानो सब हथियार भूषण जानकर पहने थे।
सवैया डारि के सज सभे धरणी तत्काल तुरंग पै दीनी फिराकी। पाइ कपाइ बड़ो दुख दौरत दौरि थकाए सुरंग मरा की ॥
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