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नागरी प्रचारिणी पत्रिका
इस प्रकार प्रयोजनवती लक्षणा के बारह भेदों में निरूढ़ा का केवल एक प्रकार मिला देने से लक्षणा के तेरह भेद हो जाते हैं । बड़े आचार्यों ने इतने ही भेद माने हैं और लक्षण्ध के कुल तेरह भेद साहित्य-समीक्षा के लिये इतने भेद पर्याप्त हैं, पर अर्थातिशय की दृष्टि से लक्षणा के अनेकानेक भेद करना भी संगत हो सकता है । एक भाषाशास्त्री की दृष्टि से शब्द ' में, पदार्थ में, वाक्यार्थ में, लिंग, वचन, कारक आदि सभी में लक्षणा का अध्ययन करना चाहिए । साधारण लोग अवश्य लिंग वचन श्रादि में लक्षणा की बात सुनकर चैकि सकते हैं पर बिल्ली, हाथी आदि शब्दों का व्यवहार क्यों दोनों लिंगों में होने लगा, आदि शब्दों का प्रयोग केवल बहुवचन प्रश्नों का उत्तर लक्षणा ही देती है । विशेषताओं को लक्षणा ही खोलती है । विवेचन का महत्त्व स्पष्ट है ।
क्यो 'वर्षा': ' ' सभा : '
में
होने लगा, इत्यादि आलंकारिक प्रयोगों की अतः लक्षणा के विशेष
( व्यंजना )
लक्षणा का क्षेत्र इतना विस्तीर्ण और व्यापक है कि अनेक विद्वान् लक्षणा को ही सब कुछ मान बैठे । आक्षेप, अनुमान, I अर्थापत्ति, श्रुतार्थापत्ति आदि सभी को लक्षणा के अंतर्गत समझने लगे । कुछ दार्शनिक ही नहीं, मुकुल भट्ट जैसे प्रालंकारिक भी भ्रम में पड़ गए । पर विचार करने पर मालूम पड़ता है कि शब्द में एक तीसरी शक्ति भी रहती है । नित्य के अनुभव में देखा जाता है कि किसी किसी शब्द से वाच्यार्थ अथवा लक्ष्यार्थ के अतिरिक्त
(1 ) देखो
शब्दे पदार्थ वाक्यार्थे संख्यायां कारके तथा ।
लिंगे चेयमलंकारांकुर बीजतया स्थिता ॥ ( चंद्रालोक ६ । १६ )
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