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________________ ४२८ नागरीप्रचारिणी पत्रिका है। अविरत सुख भी दु:ख का कारण होता है इससे सुख पर दुःख का प्रारोप किया गया है। ग्रंथ में रघुवंश का वर्णन है, इस. लिये यहाँ भी मारोप का निमित्त सादृश्य नहीं है। ब्राह्मण तात्कर्म्य संबंध से बढ़ई माना गया है, इससे गुण द्वारा यहाँ सादृश्य-संबंध नहीं माना जा सकता। इस प्रकार इन सभी में आरोप का कारण सादृश्य-संबंध न होने से शुद्धा सारोपा लक्षणा मानी जाती है। (६ ) शुद्धा साध्यवसाना लक्षणा (१) लो तुम्हें प्रायु ही दे रहा हूँ। (२) बढ़ई भी आया था। (३) इस दुःख से कैसे छुटकारा मिले । ( ४ ) रघुवंश पढ़ो। इन वाक्यों में प्रसंगानुसार प्रायु, बढ़ई, दुःख और रघुवंश से क्रमशः घृत, ब्राह्मण-विशेष, अविरत सुख और ग्रंथ-विशेष का अर्थ निकलता है। अर्थात् इन प्रारोप्यमाणों में आरोप विषयों का अध्यवसान देख पड़ता है। अत: इन सबमें साध्यवसाना लक्षणा है। अध्यवसान का कारण सादृश्य नहीं है इससे लक्षणा शुद्धा है। कुछ लोग इन छ: विभागों में से प्रत्येक के रूढ़ि और प्रयोजन के अनुसार दो दो भेद और करते हैं; पर मम्मट, जगन्नाथ, अप्पय दीक्षित आदि बड़े प्राचार्य रूढ़ि लक्षणा के भेद-प्रभेद नहीं करते अर्थात् वे प्रयोजनवती लक्षणा के ही उपर्युक्त छः भेद मानते हैं। उनका ऐसा करना बिलकुल अकारण नहीं है। सच पूछा जाय तो व्यवहार में रूढ़ लक्षणा होती ही नहीं। 'कुशल' और द्विरेफ आदि शब्दों की लोक में इतनी प्रसिद्धि हो गई है कि कभी इन शब्दों में मुख्यार्थ-बाध की कल्पना ही नहीं होती। कुशल कहने (.) देखो-साहित्यदर्पण (II) और काव्यानुशासन (हेमचंद्र-कृत)। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034975
Book TitleNagri Pracharini Patrika Part 16
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShyamsundardas
PublisherNagri Pracharini Sabha
Publication Year1936
Total Pages134
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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