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________________ ४२४ नागरीप्रचारिणा पत्रिका शब्द के अर्थ का आरोप किया जाता है। आरोप सहित होने के कारण ऐसी लक्षणा सारोपा कहलाती है। और कभी कभी यही आरोप इतना अधिक बढ़ जाता है कि आरोप का आधार ( अर्थात् विषय ) प्रारोप्यमाण में अपना अस्तित्व खो बैठता है, विषय का विषयी में अभ्यवसान हो जाता है। इस स्थल में होनेवाली लक्षणा साध्यवसाना कही जाती है। सुविधा के लिये सारोपा और साध्यवसाना के दो दो भेद और कर लिए जाते हैं। आरोप-विषय और आरोप्यमाण के बीच कोई न कोई संबंध अवश्य रहता है। कभी दोनों में किसी गुण का सादृश्य रहता है, कभी कार्यकारणभाव, कभी अंगांगिभाव, कभी तादर्थ्य, तात्कर्म्य आदि कोई संबंध । गुण-सादृश्य से होनेवाली लक्षणा 'गौणी' और शेष अन्य संबंधों से सिद्ध होनेवाली 'शुद्धा' कही जाती है। पहले चार विभाग अर्थानुसार किए गए थे ये अंतिम दो विभाग संबंध की दृष्टि से किए गए हैं। इस प्रकार लक्षणा छः प्रकार की मानी जातो है। यथा(१) लक्षणलक्षणा, (२) उपादान लक्षणा, (३) गौणी सारोपा . लक्षणा, (४) गौणी साध्यवसाना लक्षणा, लक्षणा के छः भेद (५) शुद्धा सारोपा लक्षणा, (६) शुद्धा साध्यवसाना लक्षणा। लक्षणा का यह षडधा विभाग' बड़ा व्यावहारिक और व्यापक है। शब्द के सभी लाक्षणिक प्रयोग इसके अंतर्गत प्रा जाते हैं। उदाहरणों से यह स्पष्ट हो जायगा । (१) लपणलक्षणा और उपादान बघणा में सादृश्य संबंध-निमित्त नहीं रहता; वे केवन शुद्धा ही होती हैं। किसी किसी के अनुसार उनके भी गुदा और गाणी, दो दो भेद होते हैं। देखो-साहित्य-दर्पण (२२)। पर यह मेद व्यावहारिक नहीं होता। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034975
Book TitleNagri Pracharini Patrika Part 16
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShyamsundardas
PublisherNagri Pracharini Sabha
Publication Year1936
Total Pages134
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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