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________________ ४२३ शब्द-शक्ति का एक परिचय और योग अर्थात् संबंध' तो लचणा का प्राय है। संबंध लक्षणा का दूसरा नाम है। पर कभी कभी शब्द का मुख्यार्थ-बाध नहीं होता तो भी शब्द दूसरे अर्थ का बोध कराने लगता है। जैसे एक लड़के ने संध्या को सिनेमा जाने का निश्चय कर लिया है। और जब वह कहता है, "संध्या हो गई" तब वह 'संध्या' से सिनेमा माने का समय सूचित करता है। यहाँ 'संध्या' का मुख्यार्थ भी बना रहता है और उससे एक मिन्न अर्थ भी निकल पाता है। ऐसे शब्दों में लक्षणा नहीं मानी जाती; क्योंकि यहाँ मुख्यार्थ-आधवाला हेतु विद्यमान नहीं है। भाषा में और विशेषत: साहित्यिक भाषा में लक्षणा के न जाने कितने रूप देखने को मिलते हैं। प्राधुनिक प्रातिशयरे के विवे पपणा का सामान्य चको ने उनका बड़ा सविस्तर वर्णन किया वर्गीकरण है। भाषा की अर्थवृद्धि लक्षणा से ही अधिक होती है। प्रत: लक्षणा के अनेक भेद हो सकते हैं। पर सामान्य दृष्टि से खरणा के चार भेद किए जा सकते हैं। कभी कभी शब्द अपने मुख्यार्थ को बिलकुल छोड़ देता है, केवल सत्यार्थ का बोध कराता है। शब्द के इस व्यापार को लक्षणलक्षणा कहते हैं; कमी कभी शब्द अपना अर्थ भी बनाए रखता है, उसे छोड़ता नहीं और साथ ही दूसरे प्रर्थ को भी लक्षित करने लगता है अर्थात दूसरे अर्थ का अपने में उपादान कर लेता है। ऐसे शब्द में उपादान लक्षणा होती है। कभी कभी एक शब्द के अर्थ पर दूसरे (१) मम्मट के शब्द-म्यापार-विचार में संबंध का विशद पर्यन दिया दुपा है। नो-पृष्ठ । (2) Semantics. (३) इस रहि से पड़ने पर जयदेव-कृत चंद्रालोक का नवम मयूब रास्यपूर्व देव पड़ता है। उस तार्किक ने एक परा मयूख (सरसा के मेद स्पष्ट करने में) प्रकारवाही नहीं प्यप किया है। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034975
Book TitleNagri Pracharini Patrika Part 16
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShyamsundardas
PublisherNagri Pracharini Sabha
Publication Year1936
Total Pages134
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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