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नागरीप्रचारिणी पत्रिका सहज ही अपने मुख्य अर्थ को छोड़ दूसरे अर्थ को लक्षित करने लगते हैं; और कभी कभी प्रयोक्ता का प्रयोजन व्यं जित करने के लिये उन्हें अपने मुख्य अर्थ से भिन्न किसी दूसरे अर्थ का बोध कराना पड़ता है। जैसे 'आजकल मेरे गांव में बड़ा मेल है'इस वाक्य का 'गाँव' शब्द रूढ़ि से गाँव में रहनेवालों का बोध कराता है। और एक 'हड्डी की ठठरी' सामने आकर खड़ी हो गई-इस वाक्य में 'हड्डी की ठठरी' का सप्रयोजन प्रयोग हुआ है। वक्ता किसी मनुष्य की दुर्बलता और कृशता का आधिक्य व्यं जित - करना चाहता है। इसी से 'हड्डी की ठठरी' अपने मुख्य अर्थ को छोड़ एक क्षोण और दुर्बल मनुष्य को लक्षित कर रही है। ऐसे रूढ़ि अथवा प्रयोजन के अनुरोध से असाक्षात्संकेतित अर्थ में प्रयुक्त शब्द लक्षक कहलाते हैं। उनसे बोध्य अर्थ लक्ष्य कहलाते हैं और उनकी अर्थ-बोध कराने की शक्ति लक्षणा कहलाती है।
विचारपूर्वक देखने से स्पष्ट हो जाता है कि लक्षणा में तीन' बातें प्रावश्यक होती हैं। सबसे पहले शब्द के मुख्यार्थ का बाध
_ होना चाहिए अर्थात् जब वाक्य में शब्द का लक्षणा के तीन हेतु
10 प्रसिद्ध अर्थ ठीक नहीं बैठता तभी लक्षणा की संभावना होती है। दूसरी बात यह है कि मुख्यार्थ से लक्ष्यार्थ का कुछ न कुछ संबं: अवश्य होना चाहिए। शब्द लक्षणा से उसी अर्थ का बोध करा सकता है जिसका उसके प्रधान और प्रसिद्ध अर्थ से कुछ न कुछ संसर्ग हो। और लक्षणा के लिये तीसरी आवश्यक बात यह है कि रूढ़ि अथवा प्रयोजन उसका निमित्त होना चाहिए। इन तीनों हेतुओं में से एक के भी अभाव में लक्षणा का व्यापार प्रसंभव हो जाता है। बिना प्रयोजन प्रथवा रूढ़ि के कोई शब्द दूसरे अर्थ की ओर जायगा ही क्यों ?
(१) मुख्याधबोधे तद्योगे रूढितोऽध प्रयोजनात् । ( काव्यप्रकाश २६)
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