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शब्द-शक्ति का एक परिचय
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अभिधा के तीन भेद
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अग्रिम होने से 'मुख्या' अथवा 'अप्रिमा' भी कही जाती है । वह कभी कभी केवल 'शक्ति' नाम से ही पुकारी जाती है; क्योंकि कुछ लोग अभिघा को ही शब्द की वास्तविक शक्ति समझते हैं । इस अभिधा शक्ति के तीन सामान्य भेद होते है - रूढ़ि, योग और योगरूढ़ि । इसी शक्ति-भेद के अनुसार शब्द और अर्थ भी रूढ़, यौगिक अथवा योगरूढ़ होते हैं। मथि नूपुर, गौ, हरिण आदि शब्द, जिनकी व्युत्पत्ति नहीं हो सकती, रूढ़ कहलाते हैं । इन शब्दों में रूढ़ि की शक्ति व्यापार करती है । और जिन शब्दों की शास्त्रीय प्रक्रिया द्वारा व्युत्पत्ति की जा सकती है वे यौगिक कहलाते हैं। जैसे पाचक, सेवक आदि शब्द यौगिक हैं; क्योंकि उनकी व्युत्पत्ति हो सकती है । कुछ शब्द ऐसे होते हैं जिनकी व्युत्पत्ति तो की जाती है पर व्युत्पत्तिलभ्य अर्थ शब्द के मुख्य अर्थ से मेल नहीं खाता। ऐसे शब्द योगरूढ़र कहे जाते हैं। पंकज का व्युत्पत्तिलभ्य अर्थ है 'पंक से उत्पन्न होनेवाला' । पर अब यह शब्द एक विशेष अर्थ में रूढ़ हो गया है ।
भाषा-विज्ञान की दृष्टि से विचार करें तो केवल धातुएँ ही रूढ़ कही जा सकती हैं। चंद्रालोक' के कर्ता जयदेव ने भी धातुओं को ही निर्योग माना है । धातु के अतिरिक्त अन्य शब्दों को रूढ़
(१) देखो - १० ख० मंजूषा, पृ० ४ |
( २ ) योगरूढ़ि की दूसरी परिभाषा भी है। जिन शब्दों का यौगिक
अर्थ एक विशेष अर्थ में सीमित अर्थात् रूप हो आता है जैसे पंकज अथवा अब्धि कमल और समुद्र के अर्थ में रूढ़ हो गए हैं। यही परिभाषा अधिक सुंदर प्रतीत होती है ।
(३) चंद्रालोक में जयदेव ने रूद्र, यौगिक तथा योगरूढ़ शब्दों का बड़ा सुंदर विवेचन किया है। देखो - अव्यक्तयोग निर्यो गये। गाम।सै विधाऽदिमः । इत्यादि ( १ । १०-१३ चंद्रालोक ) ।
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