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नागरीप्रचारिणी पत्रिका सफेदी एक सी नहीं होती। भैंस के कालेपन और लड़के के कालेपन में अंतर होता है। अत: इन सब भिन्न भिन्न गुणों में एक जाति माननी होती है। इसी प्रकार सेवा करना, परिश्रम करना, भोजन करना आदि क्रियाओं में 'करना' का एक अर्थ नहीं है पर करने का सामान्य भाव उन सभी क्रियाओं में है अत: क्रिया में भी एक जाति मानी जा सकती है। व्यक्तिवाचक संज्ञा में भी जाति का लक्षण पाया जाता है। किसी का नाम राम है। वह बालक था तब भी उसका यही नाम था। अब वह युवा है तब भी वही नाम है। शत्रु-मित्र, तोता-मैना आदि सभी राम-नाम से उसे पुकारते हैं पर सबके अभिप्रेत अर्थों में भेद रहता है। अत: इन भिन्न भिन्न रामों में भी एक सामान्य सत्ता होती है। इस तरह विश्व का केवल जाति और व्यक्ति इन्हीं दो भेदों में विभाग हो सकता है। पर वैयाकरण इस भ्रम का निराकरण कर देता है। गुण क्रिया प्रादि की अनेक होने की बात वास्तविक नहीं है । जिस प्रकार एक ही मुख छोटे दर्पण में छोटा, बड़े में बड़ा, तलवार में लंबा और गोल रकाबी में गोल दिखाई पड़ता है उसी प्रकार एक 'सफेद' गुण शंख, दूध आदि में आश्रय-भेद' से भिन्न और अनेक सा प्रतीत होता है। इसी प्रकार क्रिया अथवा संज्ञा भी सदा एक ही रहती है। अत: जाति, गुण, किया तथा द्रव्यचारों प्रकार के अर्थों में शब्द का संकेत मानना पड़ता है।
संकेत का यह साधारण परिचय वाचक शब्द और उसकी शक्ति अभिधा-दोनों का स्वरूप स्पष्ट कर देता है। जब संकेत सीधे समझ में आ जाय तब शब्द को वाचक, उसके अर्थ को वाच्य और उस शब्द के अर्थ-बोध करानेवाले व्यापार को अभिधा कहते हैं। शब्द की यह अभिधा-शक्ति मुख्य और
(१.) देखो-मुकुन-कृत अमिधावृचिमातृका, पृ०१।
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