________________
नागरीप्रचारिणी पत्रिका इस प्रकार न्याय का आश्रय लेनेवाले वैयाकरण इस विशिष्ट शक्तिवाद से संतुष्ट हो जाते हैं, पर प्रालंकारिक और साहित्यज्ञ प्राचीन
वैयाकरणों के उपाधिवाद को ही सुंदर समउपाधिवाद या जात्या
झते हैं । पतंजलि,भर्तृहरि आदि प्राचीन वैयादिवाद
करणों का दर्शन ही भिन्न था। वे न्याय के सिद्धांतों को ही नहीं मानते थे फिर उन सिद्धांतों के आधार पर सिद्ध वाद को कैसे मान सकते थे। वैयाकरणों का दर्शन बिलकुल वेदांतियों का अद्वैतवाद जैसा है। यह विश्व उसी एक की उपाधि है। व्यक्ति एक ही है पर वह उपाधि द्वारा इतने रूप धारण करता है। उपाधि ही उसे प्रवृत्ति-निवृत्ति योग्य बनाती है। उपाधि ही समस्त व्यापार
और व्यवहार का कारण है । अतः उपाधि में ही शब्द का संकेत होना चाहिए । शब्द उपाधि का ही ग्रहण करता है। (व्यक्ति की) यह उपाधि दो प्रकार की होती है-वस्तुधर्म और वक्त्यदच्छासनि
। कभी वक्ता वस्तु का धर्म देखकर नाम देता है और कभी किसा का मनमाना नाम रख लेता है। 'गो' शब्द से गोत्व धर्म का बोध होता है अत: गो शब्द वस्तु-धर्म का वाचक है; पर यदि पिता अपने लड़के का नाम कृष्धा अथवा सुमन रखता है तो वह केवल अपनी इच्छा से काम लेता है। ऐसा वक्ता के इच्छानुसार प्रयुक्त नाम 'वक्तृयदृच्छासनिवेशित उपाधि' कहलाता है। वस्तु-धर्म उपाधि के दो और भेद होते हैं-सिद्ध और साध्य । सिद्ध वस्तु-धर्म उपाधि के भी दो भेद होते हैं। एक प्राणप्रद और दूसरा विशेषाधानहेतु । जाति वस्तु को प्राण देती है और गुण उसकी विशेषता और भिन्नता प्रकट करता है। अत: जाति वस्तु की प्राणप्रद उपाधि है और गुण विशेषाधानहेतु उपाधि है। जाति और गुण सिद्ध उपाधियाँ हैं पर क्रिया'
(.) देखो-वाक्यपदीय--गुणभूतैरवयवैः समूहः क्रमजन्मनाम् ।
बुद्धया प्रकल्पिताभेदः निवेति व्यपदिश्यते ॥
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com