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नागरीप्रचारिणी पत्रिका व्यक्तियों में नित्य रहनेवाली एक सामान्य सत्ता 'जाति' कहलाती
है। यह व्यक्त्याश्रित रहती है, इससे मीमांसाजातिवाद
- सिद्धांत के अनुसार वह ( जाति ) व्यक्ति का विशेषण मानी जाती है। जब शब्द का जाति में संकेत होता है तो श्राप से आप व्यक्ति का आक्षेप (अनुमान अथवा लक्षणा) द्वारा बोध हो जाता है। पहले शब्द से सामान्यरे सत्ता (अर्थात् जाति) का बोध होता है; पीछे से व्यक्ति के लिये आकांक्षा उठती है, वह आक्षेप द्वारा शांत हो जाती है।
इस जातिवाद से व्यवहार का स्पष्ट विरोध है। व्यवहार में शब्द द्वारा पहले व्यक्ति की ही उपस्थिति होती है। शब्द का मुख्य __ अर्थ व्यक्ति ही देख पड़ता है, पर जातिवाद के
अनुसार जाति को मुख्यार्थ और व्यक्ति को पाक्षिप्त अर्थात् लक्ष्यार्थ मानना पड़ता है। शब्द एक बार जब जाति का बोध करा चुकता है तो उसकी शक्ति क्षीण हो जाती है अर्थात् व्यक्ति को वह लक्षणा (माक्षेप)द्वारा ही उपस्थित कर सकता है अभिधा द्वारा नहीं। मीमांसा के अनुसार व्यक्ति मुख्यार्थ नहीं हो सकता। इस प्रकार व्यक्ति को अमुख्य और लक्ष्य अर्थ मानना नैयायिकों को समीचीन नहीं प्रतीत होता । अत: वे लोग जाति-विशिष्ट व्यक्ति
a में शक्ति (अर्थात् संकेत) मानते हैं। घट शब्द जाति-विशिष्टव्यक्तिवादाता पर उससे उसी अ
एक ही रहता है पर उससे उसी प्राकृति के (अथवा विशिष्टशक्तिवाद)
"अन्य घटों का भी बोध होता है। अतः 'घट' शब्द 'व्यक्ति के साथ ही साथ ( कंबुग्रीवादिमत्व ) आकति द्वारा
खंडन
(१) जातेः प्रथममुपस्थितत्वात् व्यक्तिलाभस्तु भाक्षेपादिनेति । (कैयट)
(२)प्रथमं च सामान्यमेव शब्दागम्यते पश्चाच्च व्यकिष्वाकांसामानं जायते ततस्तदेवाभिधेयं न व्यक्तिविशेषः । (शास्त्रदीपिका)
(३) 'विशेष्यं नाभिघा गच्छेत् चीणशक्तिविशेषणे' इति न्यायः ।
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