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________________ शब्द-शक्ति का एक परिचय ४१३ मीमांसकों द्वारा खंडन यह नैयायिकों का व्यक्तिवाद व्यवहार तथा सिद्धांत दोनों दृष्टियों से सुंदर है । उसकी व्यवहारोपयोगिता तो प्रत्यक्ष ही है और संकेत को ईश्वर - कृत मानने से सिद्धांत में भी कोई दोष नहीं आ सकता । ईश्वर सर्व समर्थ है I उसने अखिल व्यक्तियों में संकेत निश्चित कर दिया है । वक्ता और प्रयोक्ता का संकेत-ज्ञान ज्यों ज्यों बढ़ता जायगा त्यों त्यों अर्थज्ञान आपसे आप बढ़ता जायगा । पर जो संकेत को ईश्वर-कृत न मानकर लोककृत मानते हैं उन्हें स्वभावतः इस वाद में दोष देख पड़ते हैं । यदि सभी व्यक्तियों में संकेत माना जाय तो एक पद की अर्थोपस्थिति ही असंभव हो जायगी । व्यक्ति अनंत होते हैं । उन सबको देख-सुनकर उनमें संकेत - स्थापना करना असंभव है । और यदि एक व्यक्ति में संकेत मानें तो नियम का व्यभिचार होगा । शब्द अनेक व्यक्तियों का बोध कराता है, यह व्यवहार से सिद्ध है । तब एक व्यक्ति में संकेत का नियम कैसे निर्दोष माना जा सकता है । इस प्रकार 'आनंत्य" और 'व्यभिचार के दोषों से दूषित होने के कारण कंवल 'व्यक्तिवाद' ग्राह्य नहीं हो सकता । अतः मीमांसकों ने जाति में संकेत की कल्पना की । जाति मौर व्यक्ति सामान्य और विशेष — Universal and Particular का भेद सभी मानते हैं । एक प्राकृतिवाली अनेक ( १ ) देखे । - तथाऽध्यानन्याइयभिचाराच तत्र संकेतः कतुळे न युज्यते इति । ( काव्यप्रकाश २|७ ) ( २ ) चाकृतिस्तु क्रियार्थस्यात् (पू० मी० १।३।३३ ) और प्राकृतिरेव शब्दार्थ इति सिद्धम् ( तंत्रवार्तिक)। यही मीमांसा में प्राकृति 'जाति' का पर्याय मानी जाती है । ( 2 ) Universal और Particular के विचार के लिये देखोStout's Analytic Psychology Vol. II. ( chapters on Thought and Language). Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034975
Book TitleNagri Pracharini Patrika Part 16
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShyamsundardas
PublisherNagri Pracharini Sabha
Publication Year1936
Total Pages134
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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