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शब्द-शक्ति का एक परिचय
४११ केवल संकेत-निर्धारण करना प्रयोक्ता (लोक) के हाथ में है। शब्द सदा किसी न किसी रूप में रहता है; जब लोग जैसा संकेत बना लेते हैं वैसा ही ( संकेतित ) अर्थ उस शब्द से भासने लगता है। विश्व में कहीं न कहीं अर्थ उलझा पड़ा रहता है; जब लोग संकेत को शब्द की सेवा में भेजते हैं, शब्द उसकी सहायता से अर्थ को मुलझाकर प्रकाश में ला देता है। लोगों को अर्थ-बोध होने लगता है। अर्थ-बोध वास्तव में होता है शब्दार्थ-संबंध के ज्ञान से-शब्द-शक्ति के ज्ञान से; पर संकेत ही उस संबंध का परिचायक होता है-उम शक्ति का ज्ञान कराता है, प्रतः संकेत का महत्त्व पहले आँखों के सामने आता है। संकेत होता भी है अर्थ
. बोध का सहकारी कारण। इस प्रकार मीमांसा और शाम्द बाधा अनसार लोकेच्छा संकेत बनाती है। लोक-व्यवहार से संकेत-ग्रह होता है। संकेत द्वारा शक्ति-प्रह होता है और शक्ति द्वारा अर्थ-ग्रह अर्थात् शाब्द बोध होता है।
वैयाकरण और पालंकारिक दोनों ही मीमासकों की इन सभी बातों का समर्थन करते हैं। वे भी लोक को प्रभु मानते हैं
.. शक्ति को संकेतग्राह्य स्वतंत्र पदार्थ वैयाकायों और पालंकारिकों ने न्याय मानते हैं। हाँ, वे लोक के पर्यवेक्षण में तथा मीमांसा का सम• एक पग और प्रागे बढ़ गए हैं। वे शक्ति को न्वय किया है
नित्य तो मानते हैं। शक्ति' शब्द में सदा रहती है-कभी सुप्त, कमी प्रबुद्ध पर उसका प्राश्रय शब्द नित्य भी है, प्रनित्य भी। इस प्रकार वे सिद्धांत और व्यवहार का समन्वय कर लेते हैं। शब्द के तत्त्वर को वे नित्य मानते हैं
(१) देखो-सम्बन्ध स्थापि म्यवहारपरम्परयानादिस्वाचित्यता । (कैपट) अषवा नित्यो पवतामयामिसंबंधः। (महामाप्य, Vol. I, p. 7.)
(२) पतंक नशद के दो रूप मान हैं-प्रम्यक स्फोट और म्यक
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