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का स्वरूप
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नागरीप्रचारिणी पत्रिका संकेत का ज्ञान कैसे होता है ? संकेत कैसे बनता है ? संकेत से
प्राह्य क्या है ? संकेत काहे में होता है
के प्रकरण अर्थात् संकेत-विषय क्या है-संकेतित अर्थ में संकेत-ज्ञान का महत्व का स्वरूप क्या है? इत्यादि प्रश्नों पर विचार करना आवश्यक है। पहले दो प्रश्नों पर विचार हो चुका है।
.. 'संकेत' समय को कहते हैं। इस शब्द से संकेत का स्वरूप
पर इस अर्थ का बोध होना चाहिए-इस अर्थ के लिये इस शब्द का प्रयोग करना चाहिए- ऐसा 'समय' ही संकेत कहलाता है। इस संकेत का ज्ञान प्रधानतया व्यवहार
_ से होता है। अन्य संकेत के ग्राहक व्यवहार संकेत का ग्राहक
- के रूपांतर मात्र हैं। यह सब स्पष्ट हो चुका है। संकेत बनने अथवा बनाने का प्रश्न थोड़ा विवादग्रस्त पर बड़ा मनोरम है। जो नैयायिक ईश्वरेच्छा, संकेत और शक्ति को पर्याय मानते
_ हैं, वे तो सहज ही उस संकेत का कर्तृत्व संकेत का कर्ता
" ईश्वर को दे देते हैं पर शब्द के वर्ण तक को नित्य माननेवाले मीमांसकों ने संकेत को शक्ति से भिन्न मानकर लोकेच्छा को उसका विधाता माना है। उनके अनुसार शब्द नित्य है। शब्द की शक्ति नित्य है; पर उस शक्ति का ग्राहक (अर्थात् ज्ञान करानेवाला) संकेत अनित्य है। उसे लोकेच्छा बनाती बिगाड़ती है। यहाँ लोकेच्छा व्यक्तिगत इच्छा का नाम नहीं है किंतु उससे सर्वसाधारण की इच्छा का अभिप्राय है। लोकेच्छा बिलकुल पाश्चात्य दार्शनिकों की General Will है। मीमांसकों ने इस लोकेच्छा का प्रभुत्व मानकर शब्द के साम्राज्य में प्रजातंत्र की घोषणा कर दी थी तो भी शब्द की नित्यता अक्षुण्ण बनी रही। शब्द तो न जाने कब से चला आ रहा है और न जाने कब तक चलेगा। वह अनादि है, अनंत है और इसी से नित्य भी है।
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