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नागरीप्रचारिणी पत्रिका शक्ति के भी छः रूप माने हैं। प्रब साधन का इतना व्यापक अर्थ मानने पर प्रश्न उठता है कि क्रिया का क्या अर्थ है। क्रिया से यहाँ प्रालंकारिकों के शब्द-व्यापार का अभिप्राय है। लक्षणाव्यापार को मम्मट ने 'पारोपिता क्रिया। कहा भी है। साधन और क्रिया ( व्यापार ) में अंतर स्पष्ट है। साधन के द्वारा वाक्य की क्रिया (अर्थात् धात्वर्थ ) निष्पन्न होती है-वह वाक्य के प्रत्येक शब्द को आपस में संबद्ध कर देती है पर व्यापार-रूप क्रिया द्वारा शब्द अपने अर्थ से संबद्ध होता है। साधन एक शब्द को दूसरे शब्द से जोड़ता है, क्रिया ( अथवा व्यापार ) शब्द को उसके ही अर्थ से जोड़ती है। यद्यपि दोनों शब्द की ही शक्ति हैं पर एक बहिरंग है, दूसरी अंतरंग। इस प्रकार क्रिया का अर्थ एक शब्द-भेद नहीं रह जाता। क्रिया से यहाँ शब्द की अर्थ-बोध कराने की क्रिया का बोध होता है। शब्दार्थ-समीक्षा की दृष्टि से इसी शब्द-क्रिया अर्थात् शब्द-व्यापार का प्राधान्य रहता है। इसी से शब्दार्थ-स्वरूप के निर्णायक साहित्याचार्यों ने इस व्यापार-रूप शक्ति को ही शक्ति माना है। व्यावहारिक दृष्टि से भी शब्द के व्यापार में ही शब्द की शक्ति देखने को मिलती है। अत: प्रालंकारिकों ने इसी रूप की विवेचना की है। __ शक्ति के इस व्यावहारिक स्वरूप की व्याख्या करने के लिये उससे संबद्ध शब्द और अर्थ-दोनों की ही अांशिक व्याख्या करनी पड़ती है। अत: शब्द-शक्ति का विद्यार्थी शब्द की तीन शक्तियों को
(१) देखो-...लक्षणाऽऽरोपिता क्रिया। (काव्य-प्रकाश २६)
(२) मम्मट, विश्वनाथ आदि ने शब्द की तीन ही शक्तियाँ मानी हैं। उन लोगों ने चौथी शक्ति 'तात्पर्यार्थ वृत्ति' का उल्लेख मात्र करके छोड़ दिया है। देखो-(i) ताः स्युस्तिस्रः शब्दस्य शक्तयः। (सा. दर्पण २३) और तात्पर्याख्या वृत्तिमाहुः....... (सा• दपण २१२०)(ii) तात्पर्यार्थोsf: केषुचित् । (का० प्र०)
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