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नागरी प्रचारिणी पत्रिका
ब्रह्मा ( कर्त्ता और कवि ), किसी को ऋषि ( द्रष्टा ) और किसी
को मेधावान् ( चतुर भावक ) ।
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मैं ही वायु के समान वेग से बहा करती हूँ; अखिल भुवनों को छूकर प्राणदान किया करती हूँ । आकाश के उस पार से लेकर पृथिवी के इस पार तक मैं रहती हूँ। अपनी महिमा से मैं इतनी बड़ी ( अर्थात् विविधरूपा ) हो गई हूँ। (ऋग्वेद १०।१६८) वाणी के इस कल- कूजन में सच्चा श्रात्मपरिचय है । यह केवल काव्य- प्रलाप नहीं है । वास्तव में जगत् वाणी का लीलास्थल है । शब्द ही इस अर्थमय जगत् का उत्पादक है । वही उसे अंधकार में से प्रकाश में लाता है । उसी के प्रकाश से विश्व में ज्ञान फैलता है । कोई भी विचारकर देख सकता है कि कोई भी सामान्य से सामान्य ज्ञान ' बिना शब्द के नहीं हो सकता । तब बिना शब्द के लोक निर्वाह कैसे हो सकता है ? तभी तो वाणी ने कहा है कि 'जानें चाहे न जानें, पर रहते हैं सभी मेरे सहारे ।' प्राचीन और नवीन दोनों ढंग के दार्शनिक विचारों ने सिद्ध करके दिखा दिया है कि बिना शब्द के ज्ञान नहीं हो सकता । बिना ज्ञान और विचार के लोक-यात्रा का निर्वाह भी नहीं हो सकता ।
ग्रीक दार्शनिक वाणी की विभूतियों को जानकर, उसके 'विराटू' रूप का दर्शन करके इतने मुग्ध हुए कि उन्होंने 'लोगस' ( Logos )
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( १ ) न सोऽस्ति प्रत्ययो लेाके यः शब्दानुगमाडते । अनुस्यूतमिव ज्ञानं सर्वे शब्देन भासते ॥
( भतृहरिकृत वाक्यपदीय )
( २ ) आजकल के मनावैज्ञानिक Stout और Ward ने भी यही बिखा है। (देखो - Analytic Psychology by Stout Vol. II)
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