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शब्द-शक्ति का एक परिचय ३६६ के सिद्धांत की स्थापना कर डाली। भारत के दार्शनिकों ने तो शब्द' का एक दर्शन ही बनाकर छोड़ा। उपासकों ने उसकी श्री; शक्ति आदि के रूपों में विविध प्रकार से उपासना की। पर इस ढंग के विचारक और उपासक भाव के आवेश में व्यवहार से कुछ दूर जा पड़े। केवल वैयाकरणों और आलंकारिकों ने व्यवहार की मर्यादा का उल्लंघन न करते हुए भी शब्द की शक्ति का विचार किया है। अत: हम उन्हीं की सहायता से शब्द-शक्ति से परिचित होने का थोड़ा प्रयास करेंगे।
साधारणतया लोग वाक्य के अल्पतम (छोटे से छोटे) सार्थक अवयव को शब्द कहते हैं। शब्द का प्रसिद्ध अर्थ यही है ।
संस्कृत शब्दानुशासन के कर्ता पतंजलि से शब्द का व्यावहारिक अर्थ
" लेकर प्राज तक के देश-भाषाओं के वैयाकरण शब्द का इसी अर्थ में व्यवहार करते हैं, पर 'शब्दार्थी काव्यम्। और 'रमणीया-प्रतिपादकशब्दः काव्यम्' कहनेवाले प्राचार्यों ने शब्द को वाणी, माषा अथवा वाक्य सामान्य का उपलक्षण भी माना है अर्थात् वाक्य और शब्द-दोनों के अर्थ में 'शब्द' का
(.) देखो-पाणिनीय दर्शन ( सर्वदर्शनसंग्रह) अथवा वाक्यपदीय । सामान्यतया तो न्याय-वैशेषिक, सांख्ययोग, मीमांसा, वेदांत, जैन, बौद् भादि समी दर्शनों ने 'शब्द' का महत्वपूर्ण विवेचन किया। और तंत्र-ग्रंथों में शब्द-शक्ति का वर्णन और भी विशद रूप से हुमा है।
(१) लो-Sweet's Grammar of English.
(१)देखो-महामाण्य पृष्ठ १.२ ( Keilhorn's edition. Vol. I)।
(.) देशो-मामह, कदर, वामन, मम्मट मादि की काव्य की परिभाषाएं (काम्यालंकार, काव्यप्रकाश मादि)।
(१) अगसाप-कृत रसगंगाधर ।
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