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(१५) शब्द-शक्ति का एक परिचय
[ लेखक-श्री पद्मनारायण प्राचार्य, एम० ए० काशी] माषा सबकी साधारण संपत्ति है। एक अज्ञ भी उससे काम लेता है। विज्ञ केवल उसकी विशेष जानकारी रखता है। पर कमी कोई विशेषज्ञ उसके इतने निकट पहुँच जाता है कि वाणी उसे प्रात्म-समर्पण कर देती है, उस विपश्चित् वाग्योगविद्-तपस्वी से तनिक भी दुराव नहीं करती, सब रहस्य खोलकर कह देवी है। सुदूर वैदिक काल में ऐसे ही एक ऋषि थे। उनसे एक दिन घुल घुलकर बातें करते हुए वाग्देवी ने अपने बारे में कहा था
मैं रुद्रों के साथ विचरती हूँ, वसुमों के साथ साथ घूमती हूँ, मादित्यों और विश्व-देवों के साथ विहार करती हूँ। मैं मित्र और वरुण दोनों का भरण-पोषण करती हूँ। मैं ही इंद्र, अग्नि और दोनों अश्विनीकुमारों को पालती हूँ।
x x x x x मैं ( जगत् की ) रानी हूँ; धन की संप्राहिका देने-दिलानेवाली हूँ। मैंने सबसे पहले पूज्य प्रजापतियों को पहचाना था। मैं बहुतेरे स्थानों में स्थिर होकर अपना पासन जमा हो रही थी कि उन्होंने मुझे पहचानकर अन्य सुदूर देशों में भेज दिया।
देखने-सुननेवाले सभी प्राणी मुझसे माहार पाते हैं । (प्राश्चर्य तो यह है कि ) वे मुझे जानते नहीं पर रहते हैं मेरे ही सहारे । तुमने वो बहुत कुछ सुना है। तुमसे ही मैं कहती हूँ। सुनो और इस पर विश्वास (अदिवं ) करो। __ मैं स्वयं यह कहती हैं कि कोई ऐसा नहीं जो मेरी सेवा नहीं करता । मैं जिस जिसको चाहती हूँ, बड़ा बना देती है-किसी को
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