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तसव्वुफ अथवा सूफीमत का क्रमिक विकास ५०३ बगे रहते थे। उनकी यह पद्धति इसलाम के अनुकूल न थी। प्राचीन नबियों की भांति उनका भी उपहास किया जाता था। मुहासिवी तथा वायजीद को कहने मात्र से संतोष न हो सका। उन्होंने तसव्वुफ पर कुछ लिखा भी। उनकी इन कृतियों का महत्व कुछ इसी से समझ में आ जाता है कि इमाम गजाली ने भी इनका अध्ययन किया। प्रस्तुत काल में अब्बासी शासकों में न तो वह शक्ति रही, न विद्या-प्रेम ही। सच बात तो यह है कि इस समय मुसलिम संघ एवं साम्राज्य नाना प्रकार की दलबंदियों में फंस गया था। न जाने इसलाम के कितने विभाग होते जा रहे थे। इधर सूफी तसव्वुफ की परिभाषा' में लगे थे। यदि हाद तसव्वुफ को प्रात्मशिक्षण मानता है तो तुस्तरी उसको मितभोजन, प्रपत्ति एवं एकांतवास समझता है। नूरी की दृष्टि में तो सत्य के लिये स्वार्थ का सर्वथा त्याग ही तसव्वुफ है। उसके विचार में निर्लिप्त ही सूफी है। परिभाषाओं के प्राधिक्य से प्रतीत होता है कि अब सूफी मत का सत्कार हो रहा था और लोग उसका परिचय भी मांगने लगे थे।
यजीद के अनंतर सूफी मत का मर्मज्ञ एवं इसलाम का ज्ञाता जुनैद (मृ० ६६६) हुमा। जुनैद उन व्यक्तियों में एक है जिनका सम्मान मुखा और फकीर दोनों ही करते हैं । हवाज (मृ० ६७८) जब यातनाएँ झेल रहा था, जुनैद उस समय भी मुक्त था। वह स्वयंर कहता था कि हमाज और उसके मतों में विभिन्नवा न थी । हमान के दंड का कारण उसका तर्क या गुह्य विद्या का प्रकाशन था और उसके सम्मान तथा संरक्षा में सहायक उसका प्रमाद अथवा दुराव था । जुनैद अवसर देखकर काम करता था । गुप्त रूप
(.) J. R. A. Society 1906 p. 335-347. (.) Studies in Taswwuf p. 132.
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