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________________ तसव्वुफ अथवा सूफीमत का क्रमिक विकास ४८७ स्थान लचणा एवं व्यंजना को मिल गया । हदीस की सीमा भी अब परिमित हो चली थी । उसको लेकर रूढ़ि और विवेक, नक्ल और अक्ल का झगड़ा खड़ा हो गया । कर्त्ता और कर्म. भाग्य एवं व्यक्ति का विवेचन भी आरंभ हो गया । न्याय की जिज्ञासा प्रतिदिन बढ़ती गई । प्राज्ञा और प्रसाद में विवाद छिड़ा । सारांशत: इसलाम के नाना संप्रदाय अपने मत के निरूपण में लगे 1 मोत जिल संप्रदाय ने सूफियों के अनुकूल वातावरण उत्पन्न किया । उसने कुरान की अद्भुत व्याख्या, न्याय का उचित प्रतिपादन. तौहीद का वास्तविक विवेचन करने की जो चेष्टा की उसमें चाहे उसको सफलता भले ही न मिली हो; किंतु उसने इसलाम को झकोरकर सतर्क कर दिया। मुर्जी दल उसको रोक न सका । खारिजी भी तटस्थ न रह सके । कादिरी भी प्रयत्नशील हुए । सूफियों की मधुकरी वृत्ति ख्यात ही है 1 वे ज्ञानार्जन में मग्न रहे । इस युग के प्रमुख सूफी इब्राहीम, दाऊदताई तथा सकती कहे जा सकते हैं । इब्राहीम में मुल्लाओं की उपेक्षा तथा कर्मकार्डों की अवहेलना थी । परमेश्वर के प्राज्ञा-पालन और संसार की सार-हीनता पर वे विशेष जोर देते थे । दाऊद कहा करते थे'"मनुष्यों से उसी तरह दूर भागो, जिस तरह शेर से दूर भामते हो । संसार का व्रत रहो और निधन का पारण करो ।” स्पष्टत: इन सज्जनों में अनुराग से कहीं अधिक विराग का बोलबाला है । प्रभी संग्राम-जनित चोभ का उपशमन और परमेश्वर की प्राज्ञा का पालन ही साधुओं के लिये स्वाभाविक था । प्राचीन संस्कार इसलाम से डर एकांत सेवन में ही अपना हित समझते थे । प्रेम के संबंध में इतना जान लेना उचित है कि अब तुर्क और मग बच्चे (1) J. R. A. Society 1906 p. 347. ३७ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat — www.umaragyanbhandar.com
SR No.034975
Book TitleNagri Pracharini Patrika Part 16
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShyamsundardas
PublisherNagri Pracharini Sabha
Publication Year1936
Total Pages134
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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