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नागरीप्रचारिणी पत्रिका कि यह इसलाम का स्वर्णयुग था। इसमें भिन्न भिन्न मतों, दर्शनों, कला, विचारों आदि का विनिमय व्यापक रूप से हो रहा था; दुद्धि-व्यायाम परित: चल रहा था और पारस की आर्य-संस्कृति इसलाम की रग रग में दौड़ने की चेष्टा कर रही थी। संक्षेपत: यह इसलाम में चिंतन का युग था। इसमें कुरान के कोरे प्रमाण और हदीस की सच्ची गवाही मात्र से इसलाम का सिक्का नहीं चल . सकता था। उसको सहज जिज्ञासा को शांत करना था।
पारस इसलाम का सदा से एक अजीब उपनिवेश रहा है। इसलाम में पारसीकों का चाहे जितना योग रहा हो, पर इसलाम को कबूल कर पारसीकों ने एक नवीन मत धारण किया। इसलाम में शायद ही कोई ऐसा धार्मिक आंदोलन छिड़ा हो जिसका प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से पारस से कुछ भी संबंध न रहा हो। तसव्वुफ तो बहुत कुछ पारस का प्रसाद है। सूफी मत को व्यवस्थित रूप देने में इसलाम के उन संप्रदायों ने विशेष सहायता दी जो कुरान, हदीस, ईमान, कर्म, भाग्य, न्याय आदि प्रसंगों पर विवाद करते और अपने अपने मतों का अलग अलग निरूपण करते थे। कुरान के विषय में सबसे विकट प्रश्न उसके स्वरूप के संबंध में था। मुहम्मद साहब के पहले वह कहाँ और किस रूप में था। जो लोग कुरान का उपहास प्रथवा उसका अनुकरण कर एक दूसरा कुरान रच रहे थे उनको दंड दिया गया और कुरान की प्रतिष्ठा भली भाँति स्थापित हो गई। अपने पक्ष के प्रतिपादन एवं विपक्ष के निराकरण के लिये कुरान प्रमाण तो कभी का बन चुका था, अब धर्म-संकट से बचने और आत्म-तुष्टि के लिये भी उसका प्रमाण अनिवार्य हो गया। उसमान के समय में उसको जो रूप मिल गया था उसमें किसी प्रकार परिवर्तन नहीं किया जा सकता था, अत: उसकी शब्द-शक्ति पर ध्यान दिया गया। अभिधा का
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