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तसव्वुफ अथवा सूफीमत का क्रमिक विकास ४९५ मादन-माव के जिस विभव का दर्शन राबिया तथा उसकी सखियों में मिला उसका मूल-स्रोत वस्तुत: वासनात्मक है। बायबिल' में जिस वेदना का विधान किया गया था उसका विमल विलास राबिया में हुआ। परंतु उसके निरूपण का जो श्रम प्लेटो तथा प्लाटिनस प्रभृति पंडितों ने किया था उसकी प्रतिष्ठा अभी इसलाम में न हो सकी। इसलाम में प्रेम का प्रतिपादन नवीन पद्धति पर करना परम आवश्यक प्रतीत होने लगा। शासकों के भोग-विलास से प्रेम को प्रोत्साहन मिला। उसका कल निनाद स्फुट हुआ। उमय्या-वंश के बादल को विच्छिन्न कर पारस का सितारा चमका। अब्बासियों के शासन में पारस को जो प्रतिष्ठा मिली उसका इसलाम पर इतना गहरा प्रभाव पड़ा कि पद पद में इसी की प्राभा फूटने लगी। संस्कृति की दृष्टि से अरब पारस के विजयी भृत्य बन गए। उनको अध्यात्म का गूढ़ विवेचन नहीं भाता था, पर किसी मत में मीन-मेष कर लेना वे जानते थे। पारस के संपर्क में तो परब बहुत पहले से थे, अब उसके बीच में बसकर उसे इसलाम की दीक्षा देने लगे थे। उनका एकमात्र धार्मिक प्रस कुरान था। हदीस का उपयोग भी कर लिया जाता था। पारस काफी बुद्धि-वैभव देख चुका था। प्रवासियों की कृपा से बगदाद विद्या का केंद्र बन गया। न जाने कितने ग्रंथों के अनुवाद परबी में किए गए। प्रोस एवं भारत के मनीषी मर्मज्ञ बगदाद में मामंत्रित हुए। बरामकार पहले बोल थे। उनके मंत्रित्व में बगदाद ने जो विद्या-प्रचार किया वह इसलाम की नस नस में मिन गया। अनूदित ग्रंथों एवं अन्य विषाव्यापारी का समीण न कर हम इतना कह देना प्रलं समझते हैं
(१) Joce I. 8. (२) अरव और भारत के संबंध पू. १४
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