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नागरीप्रचारिणी पत्रिका अकेली अापके साथ हूँ।" उसका निर्देश' है-“हे नाथ! मैं आपको द्विधा प्रेम करती हूँ। एक तो यह मेरा स्वार्थ है कि मैं आपके अतिरिक्त किसी अन्य की कामना नहीं करती, दूसरे यह मेरा परमार्थ है कि आप मेरे परदे को मेरी आँखों के सामने से हटा देते हैं ताकि मैं आपका साक्षात्कार कर आपको सुरति में निमग्न हूँ। किसी भी दशा में इसका श्रेय मुझे नहीं मिल सकता। यह तो
आपकी कृपा-कोर का प्रसाद है।" मुसलिम राबिया को मुहम्मद साहब का भय था। उसने उनसे प्रार्थना की२-“हे रसूल ! भला ऐसा कौन प्राणी होगा जिसे आप प्रिय न हों। पर मेरी तो दशा ही कुछ और है। मेरे हृदय में परमेश्वर का इतना प्रसार हो गया है कि उसमें उसके अतिरिक्त किसी अन्य के लिये स्थान ही नहीं है।" प्रेम का पुनीत परिचय, भावना का दिव्य दर्शन, मुहम्मद की मधुर उपेक्षा, कामना का कलित कल्लोल, वेदना का विपुल विलास
आदि सभी गुण राबिया के रोम रोम से प्रेम का आर्तनाद कर रहे हैं। उसका जीवन परमेश्वर के प्रेम से प्राप्लावित था। सचमुच राबिया माधुर्य-भाव की जीती-जागती प्रतिमा थी। वह इस लोक में रहती और उस लोक का परिचय देती थी। मैक्डानल्ड महोदय तो मादन-भाव का सारा श्रेय राबिया, अथवा स्त्री-जाति को ही देना संगत समझते हैं। राबिया के अतिरिक्त बहुत सी अन्य देवियों ने महामिलन के स्वप्न में परम प्रियतम का विरह जगाया था और इसलाम के कर शासकों का दर्प देखा था। वजा के हाथ-पैर काटे गए, पर उसको इसका दुःख न रहा। भविष्य की विभूति ने उसे घोर संताप से विमुख कर दिया। वह परम प्रेम में मत्त रही।
(1) A Literary History of the Arabs p. 234.
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p. 234.
) Muslim Theology p. 173.
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