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तसव्वुफ अथवा सूफीमत का क्रमिक विकास
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के आधार पर अवश्य करना था । जनता की घोषणा थी कि वह इसलाम का साथ देगी, किसी व्यक्तिविशेष से उसका कुछ संबंध नहीं । अतएव अपने अपने मत के अनुसार इसलाम, ईमान और दीन की व्याख्या अनिवार्य हो गई । इसलाम में नाना संप्रदाय चल पड़े । सुन्नी और शीया का विरोध आरंभ हुआ । जो तटस्थ रह गए उनको खारिजी की उपाधि मिली ।
मुसलिम वांडव ने मसीही लास्य को दबाकर जिस आवर्त्त को जन्म दिया उसमें किसी के स्वरूप का ठीक ठीक पता लगाना एक दुस्तर काम है । फिर भी आसानी के साथ कहा जा सकता है कि संतमत के योग्य यह वातावरण इसी अंश में था कि इसमें कुछ निर्वेद का उदय हो जाता था । उद्भव के प्रकरण में हम देख चुके हैं कि युद्ध में प्राचीन नबियों का काफी हाथ रहता था । इस समय उनका हाथ अपनी कला कहाँ तक दिखाता रहा, इससे हमारा मुख्य प्रयोजन नहीं । क्योंकि उनका यह काम भक्तों का नहीं, पंडा-पुरोहितों का कर्म समझा जायगा । इस समय उन महानुभावों का भी दर्शन नहीं संगीत एवं प्रेम का प्रचार करते हैं । मनोविज्ञान की तो यह एक सामान्य बात है कि संग्राम शांति चाहता है, उत्साह निर्वेद में समाप्त होता है । रण में जो भीषण रक्तपात और करुण एवं वीभत्स दृश्य सामने आते हैं वे उदार पुरुषों को किसी समाज में नहीं रहने देते, बल्कि उनको संसार से विरक्त कर कहीं एकांतसेवन करने के लिये विवश करते हैं । यही कारण है कि हमें जिन ' त्यागी, संतोषी, उदार और भक्त व्यक्तियों का कुरान में दर्शन होता है उनका भी इस युग में पर्याप्त पता नहीं चलता इस वातावरण में शांत तपस्वी व्यक्तियों का एकांत दर्शन ही स्वाभाविक है
(१) तसम्वुफ इसलाम पृ० १२ ।
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साथ ही हमको मिल सकता जो
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