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नागरी प्रचारिणी पत्रिका
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जो प्रश्न आए उनका समन्वय वह न कर सका । पारस को जीतकर इसलाम स्वयं पारसी बनने लगा । अरब मुहम्मद साहब को अरब नेता मानकर उनके संघ में शामिल हो गए थे और उनकी सफलता और प्रतिभा के कारण उनको रसूल भी मान बैठे थे, ईरानियों की भाँति मुहम्मद साहब को वे कभी उस पद पर प्रतिष्ठित नहीं कर सकते थे जिससे केवल उन्हीं के वंशज इसलाम के शासक बनें । अस्तु, अरबों ने अली ( मृ० ७१७ ) की अवहेलना कर बकर को खलीफा चुना । पुत्री के पति से पत्नी के पिता को अधिक महत्त्व दिया। फातिमा और आयशा का विरोध चल पड़ा । अली शिष्ट, सुशील, कवि, व्याख्याता, वीर एवं उदात्त थे । कूटनीति की कुत्सित चालों से उनका मस्तिष्क मुक्त था । मुसलिम संसार में अली सा सुशील वीर उत्पन्न न हुआ । उनमें भक्तिभावना का पूरा प्रसार था । प्रवाद है कि मुहम्मद साहब ने गुह्य . विद्या का प्रकाशन केवल अली से किया था । जो कुछ हो, अली अपनी उदात्तवृत्तियों के कारण इसलाम का संचालन बहुत दिन तक न कर सके । उनके वध के अनंतर उमय्या वंश का शासन ( सं० ७१८-८०६ ) आरंभ हुआ । कुछ ही दिनों के बाद (सं० ७३७ ) करबला के क्षेत्र में उनकी प्यारी संतानों की जो दुर्दशा की गई उसका स्मरण कर आज भी चित्त व्याकुल हो जाता है और शीया तो उनके मातम में छाती पीटकर मर से जाते हैं । उनके विलाप को सुनकर हृदय दहल उठता है और करबला के हत्याकांड को इसलाम का कलंक समझने को विवश हो जाता है ।
इसलाम के नाम पर जो मुसलमानों में पारस्परिक संग्राम छिड़ गया था उसमें सांख्य का उदय होना अनिवार्य था । इसलाम के लिये मर मिटनेवाले व्यक्तियों की अब भी कमी नहीं थी । हौं, उनको अपने दल में लाने के लिये अपने पक्ष का पुष्टीकरण इसलाम
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