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नागरीप्रचारिणी पत्रिका
संप्रदायों की मन
सुन्ना का भी प्रश्न था । धार्मिक ग्रंथों में कुरान क्षेपकों से बहुत ही सुरक्षित है । उसमान (मृ० ७१२ ) ने चाहे उसमें कुछ परिवर्तन किया हो, पर उनके अनंतर कुरान का रूप स्थिर और व्यवस्थित हो गया । परंतु हदीस और सुन्ना, सुगम होगा यदि दोनों ही को हदीस कहें, बहुत दिनों तक स्थिर रहे । चाही व्याख्या के लिये हदीस चिंतामणि या कल्पलता का काम करते आ रहे हैं । उसमान के वध के कारण इसलाम में जा विभेद हुए उनके प्रतिपादन के लिये हदीस ही उपयुक्त थे; क्योंकि कुरान का रूप उस समय तक स्थिर हो गया था और उसमें कुछ हेरफेर करना असंभव था । पक्ष के पुष्टीकरण एवं विपक्ष के निराकरण के लिये हदीस का व्यापार चल पड़ा । पक्षापक्ष की खींच-तान, वादियों की छीन झपट में हदीस का विस्तार बहुत दिनों तक होता रहा । संत भी सजग थे : उन्होंने भी परिस्थिति से लाभ उठा अनेक हदीस गढ़ डाले । จ जब इसलाम के कट्टर अनुयायी काम, क्रोध, लोभ आदि दुष्ट वृत्तियों के लिये अनृत हदीस गढ़ रहे थे, पाखंड का प्रचार कर रहे थे, तब सारग्राही संत आत्मरक्षा, जीवोद्धार एवं भगवद्भक्ति के लिये यदि इस क्षेत्र में उतर पड़े तो कोई आश्चर्य की बात नहीं । वह भी उस समय जब उनको बहुत कुछ अर्थ - प्रवर्तन करना था, हदीसों का दुष्ट निर्माण नहीं |
प्राय: यह देखा जाता है कि जन-समाज भावे की उपेक्षा कर क्रिया के अनुसरण में अधिक तत्परता दिखाता है । इसलाम इसका अपवाद नहीं । मुहम्मद साहब अरबों के उत्थान में मग्न थे । अरबों के लिये अरबी में कुरान उतर रही थी । किंतु उनके
(1) The Mystics of Islam p. 53 (3) The Traditions of Islam p. 13 (३) मुरा १२ २, १३. ३७, ३३. २६, ४१.२ ।
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