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नागरीप्रचारिणो पत्रिका निर्गुण संप्रदाय में, समय की प्रगति के साथ, जो बाहरी प्रभाव श्रा गए थे उनसे उसे मुक्त करने का भी उन्होंने प्रयत्न किया। निर्गुण पंथ के अनुयायियों को उन्होंने समझाया कि एक संप्रदाय के रूप में उसका प्रवर्तन नहीं किया गया था। उस समय तक निर्गुण पंथ के आधार पर कई संप्रदाय उठ खड़े हुए थे जो सिद्धांत रूप में कर्मकांड के विरोधी होने पर भी स्वत: कर्मकांड के पाषंड से भर गए थे। तुलसी साहब ने समझाया कि निर्गुण पंथ किसी संप्रदाय के रूप में नहीं चलाया गया था। नाम-भेद से निर्गुण पंथ में अंतर नहीं पड़ सकता। अलग अलग नाम होने पर भी सब पंथ सार रूप में एक हैं।
जान पड़ता है कि उनका प्राय: सब धर्म के प्रतिनिधियों से वादविवाद हुआ था, जिनमें अंत में सबने उनके सिद्धांतों की सत्यता स्वीकार की। तुलसी साहब ने स्वयं अपनी घटरामायण में उनका उल्लेख किया है। यदि ये वाद-विवाद कल्पना मात्र भी हों, और यही अधिक संभव है, तो भी उनका महत्त्व कम नहीं हो सकता। उनसे कम से कम यह तो पता चलता है कि तुलसी साहब का उद्देश्य क्या था। परंतु उनके सिद्धांतों का गांभीर्य उनके ओछे श्लेषों तथा व्यर्थ के आउंबर के कारण बहुत कुछ घट जाता है । उन्होंने बहुधा विलक्षण नामों की तालिका देकर लोगों को स्तंभित करने का यत्न किया है। उनकी दीनता में भी बनावट और प्रार्ड. बर स्पष्ट झलकता है।
इनके पंथ में इनकी प्रायु तीन सौ वर्ष की मानी जाती है । कहते हैं कि ये वही तुलसीदास हैं जिन्होंने रामचरितमानस की रचना की थी। घटरामायण में उनके किसी आडंबर-प्रिय शिष्य ने इस बात की पुष्टि के लिये एक क्षेपक जोड़ दिया है। उसके अनुसार घटरामायण की रचना रामचरितमानस से
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