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हिंदी काव्य में निर्गुण संप्रदाय ८८ साधु थे। परंतु जान पड़ता है कि चरनदास उन्हें श्रीमद्भागवत के प्रसिद्ध शुकदेव ही समझते थे, जिनको माता के गर्भ में ही ज्ञान हो जाने की बात कही जाती है और जो अमर माने जाते हैं। जान पड़ता है कि इनके ज्ञान-चतु भागवत पुराण के ही अध्ययन से खुले थे। इस पुराण की समस्त कथा को शुकदेवजी ने राजा परीक्षित को पापों से मुक्त करने के उद्देश्य से कहा था। यदि भागवत का भली भाँति अध्ययन किया जाय तो पता लगेगा कि रहस्य-भावना से ओत-प्रोत होने के कारण वह संत साहित्य का सब से महत्त्वशाली महाकाव्य है, जिसमें कथानक के बहाने प्रेम को प्रतीक बनाकर ज्ञान की शिक्षा दी गई है। चरनदासियों के लिये भागवत का नायक श्रीकृष्ण समस्त कारणों का कारण है। गीता के भावों को उन्होंने स्वच्छंदता से अपनाया है और स्थान स्थान पर साहस के साथ उससे उद्धरण भी दिए हैं-साहस इसलिये कहते हैं कि निर्गुणी संतों ने प्राचीन ग्रंथों से अकारण घृणा प्रदर्शित की है; परंतु चरनदासियों में प्रेमानुभूति की वह विशेषता भी है जिसके कारण हम उन्हें निर्गुण संत-संप्रदाय से अलग नहीं कर सकते। चरनदास के ज्ञानस्वरोदय और बानी प्रकाश में आए हैं। __ ज्ञानस्वरोदय योग का ग्रंथ है और बानी में संतमतानुकूल आध्यात्मिक जीवन के विभिन्न अंगों पर उपदेशात्मक विचार तथा स्वतंत्र उद्गार हैं। चरनदास की मृत्यु सं० १८३६ के लगभग दिल्ली में ही हुई जहाँ उनकी समाधि और मंदिर अब तक हैं। मंदिर में उनके चरणचिह्न बने हुए हैं। वसंतपंचमी को वहाँ एक मेला लगता है। चरनदास के बहुत शिष्य थे जिनमें से बावन शिष्यों ने अलग अलग स्थानों पर चरनदासी मत की शाखाएँ
(१) सतबाना-सग्रह, भाग १, ४२ साखी ४, ५, ६ ।
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