________________
७६
७. मलूकदास
हिंदी काव्य में निर्गुण संप्रदाय जिनके सिद्धांत किसी सीमा की परवा न कर नेपाल, जगन्नाथ, काबुल आदि दूर दूर देशों में फैल गए, वह भी उस ज़माने में जब
दूर दूर की यात्रा इतनी आसान न थी, जितनी
____ आज है। उपर्युक्त स्थानों के अतिरिक्त उनकी गद्दियाँ कड़ा, जयपुर, गुजरात, मुलतान और पटने में हैं। उनके भानजे और शिष्य सथुरादास ने पद्य में परिचयी नामकी उनकी एक जीवनी लिखी है, जो अभी तक प्रकाशित नहीं हुई हैमलूक को भगिनी-सुत जोई । मलूक को पुनि शिष्य है सोई ॥
... । सथुरा नाम प्रगट जग होई ॥ तिन हित-सहित परिचयी भाषी । बसै प्रयाग जगत सब साषी ।।
इसके अनुसार बाबा मलूकदास के पिता का नाम सुंदरदास था, पितामह का जठरमल और प्रपितामह का बेणीराम। इनके हरिश्चंद्रदास, शृंगारचंद्र, रायचंद्र ये तीन भाई और थे। मलूकदास का प्यार का नाम मल्लू था। ये जाति के कक्कड़ थे। इनका जन्म वैशाख कृष्ण ५ सं० १६३१ में कड़ा में हुआ था और १०८ वर्ष की दिव्य और निष्कलंक आयु भोगकर वैशाख कृष्ण चतुर्दशो संवत् १७३६ में वहीं वे स्वर्गवासो भी हुए। मिस्टर ग्राउस ने अपनी मथुरा में इन्हें जहाँगीर का समकालीन बताया
। बेणीमाधवदास ने अपने मूल गोसाईंचरित में लिखा है कि मुरार स्वामी के साथ इन्होंने गोस्वामी तुलसीदास जी के दर्शन किए थे । कड़ा में अब तक इनकी समाधि, वह मकान जहाँ इनको परमात्मा का साक्षात्कार हुआ था, माला, खड़ाऊँ, ठाकुरजीर इत्यादि विद्यमान हैं जिनका दर्शन कराया जाता है। जगन्नाथजी में
(१) 'गोस्वामी तुलसीदास' (हिंदुस्तानी एकेडमी), पृ० २४४, ८३ ।
(२) इनकी रचनाओं से तो मालूम पड़ता है कि ये मूर्ति के ठाकुरजी की शायद ही पूजा करते रहे हों।
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com