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नागरीप्रचारिणी पत्रिका के लिये चल पड़े, और अंत में नराना में बस गए। वहीं संवत् १६६० में उनकी मृत्यु हो गई। उनकी पोथी और कपड़े उस स्थान पर अब तक स्मारक-रूप में सुरक्षित हैं। दादृ कई भाषाएँ जानते थे और सब पर उनका अधिकार था। सिंधी, मारवाड़ी, मराठी, गुजराती, पारसी सबमें उनकी कविताएँ मिलती हैं परंतु उन्होंने विशेषकर हिंदी में रचना की है जिसमें राजस्थानी की विशेष पुट है। दाद की रचना कोमल और मृदु है किंतु उसमें कबीर की सी शक्ति और तेज नहीं है। सबके प्रति उनका भाई के ऐसा व्यवहार रहता था, जिससे वे 'दादू' कहलाए और उनके द्रवणशील स्वभाव ने उन्हें 'दयाल' की उपाधि दिलाई। उनकी गहन आध्यात्मिक अनुभूति की कथा अकबर के कानों तक भी पहुँची। कहा जाता है कि बीरबल की प्रार्थना पर अकबर का निमंत्रण स्वीकार कर वे एक बार शाही दरबार में गए थे, जहाँ उनके सिद्धांतों की सत्यता को सबने एकमत होकर स्वीकार किया। उनके शिष्य रज्जबदास ने एक साखी में इस घटना का उल्लेख किया है।
दादू के कुल मिलाकर १०८ चेले थे जिनमें से सुंदरदास सबसे प्रसिद्ध हुआ। सुंदरदास नाम के उनके दो शिष्य थे। बड़ा सुंदरदास, जिसने नागा साधुओं का संगठन किया, बीकानेर के राजघराने का था। प्रसिद्ध सुंदरदास छोटा था। वह छः ही वर्ष की अवस्था में दादू की शरण में भेज दिया गया था किंतु उनकी देखभाल में वह एक ही वर्ष रह सका, क्योंकि एक साल बीतते बीतते दादू दयाल की मृत्यु हो गई। इसलिये सुंदरदास का गुरुभाई जग(१) अकबरि साहि बुलाया गुरु दादू को श्राप । साँच झूठ व्योरो हुओ, तब रह्यो नाम परताप ॥
-'सर्वांगी' पौड़ी हस्तलेख, पृ. ३६५ (अ).३६६ ।
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