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हिंदी काव्य में निर्गुण संप्रदाय
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एक की मृत्यु
।
अपनी कवि
सं० १५-८३ में, गुरु अमरदास सं० १६१५ में, गुरु रामदास सं० १६३१ में, गुरु अर्जुनदेव सं० १६३८ में, हरगोविंद सं० १६६३ में, हरराय सं० १७०२ में, गुरु हर किसन सं० १७१८ में, गुरु तेगबहादुर सं० १७२१ में और सं० १७३२ में गुरु गोविंदसिंह | ये सब गुरु नानक की ही आत्मा समझे जाते थे । पर दूसरे के शरीर में उसका प्रवेश माना जाता था ताओं में सबने अपनी छाप 'नानक' रखी है । अपने आदि गुरु के समान सभी गुरु कवि थे । सबने अपनी कविताओं में नानक के भावों और आदर्शों का पूर्ण अनुकरण किया है। पहले पाँच गुरुओं की रचना प्रादि ग्रंथ में संगृहीत है जो गुरु अर्जुनदेव के समय में संवत् १६६१ ( १६०४ ई० ) में संपूर्ण हुआ । इस संग्रह में तब तक के सिख गुरुओ के अतिरिक्त अन्य भक्त जनों की वाणी का भी समावेश हुआ । नानक ने बड़े आकर्षक और रुचिर पदों में भगवान् के चरणों में आत्म-निवेदन किया है । उनकी कविता मर्मस्पर्शी, सीधी-सादी और साहित्यिक कलाबाजी से मुक्त है । उन्होंने ब्रजभाषा में लिखा है, जिसमें थोड़ा सा पंजाबीपन भी आ गया है ।
नानक की आध्यात्मिक अनुभूति अत्यंत गहन थी इसलिये उन्होंने धन का तिरस्कार किया | किंतु श्रद्धालु भक्तों की भक्तिभेंट के कारण उनके पीछे के गुरुओं का विभव उत्तरोत्तर बढ़ने लगा, इसलिये उन्हें सांसारिक बातों की ओर भी ध्यान देना पड़ा । अकबर के समय तक तो गुरुओं का विभव शांतिपूर्वक बढ़ता रहा । स्वयं अकबर भी उसमें सहायक हुआ; उसी की दी हुई भूमि पर गुरु रामदास ने अमृतसर का प्रसिद्ध स्वर्णमंदिर बनवाया । परंतु गुरु अर्जुन ने शाहजादा खुसरो से सहानुभूति दिखलाकर जहाँगीर से शत्रुता मोल ले ली और शाही कैदखाने की यंत्रणा से पाँचवें दिन
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