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नागरीप्रचारिणी पत्रिका
यदि वस्तुतः देखा जाय तो नानक उन महात्माओं में से थे जिन्हें हम संकुचित अर्थ में किसी एक देश, जाति अथवा धर्म का नहीं बतला सकते । समस्त संसार का कल्याण उनका धेय था । इसी लिये उन्होंने हिंदू मुसलमान दोनों की धार्मिक संकीर्णता का विरोध किया । परंतु अपने समय के वास्तविक तथ्यों के लिये वे आँखें बंद किए हुए न थे। मिस्टर मैक्स आर्थर मेकॉलिफ का यह कथन कि सिखधर्म हिंदू धर्म से बिलकुल भिन्न है, आज चाहे सही हो पर नानक का यह उद्देश्य न था कि ऐसा हो । नानक हिंदू धर्म के उद्धारक और सुधारक होकर अवतरित हुए थे, उसके शत्रु होकर नहीं । सुधार के वेही प्रयत्न सफल हो सकते हैं जो भीतर से सुधार के लिये अग्रसर हों, नानक यह बात जानते थे। उन्होंने परंपरा से चले आते हुए धर्म में उतना ही परिवर्तन चाहा, जितना संकीर्णता को दूर करने तथा सत्य की रक्षा करने के लिये आवश्यक था । उन्होंने मूर्तिपूजा, अवतारवाद और जातिपाँति का खंडन किया, परंतु त्रिमूर्ति ( ब्रह्मा, विष्णु, महेश ) के सिद्धांत को स्पष्ट शब्दों में स्वीकार किया । प्रणव ॐ को अपनी वाणी में आदर के साथ स्थान दिया । 'एकं सद्विप्रा बहुधा वदंति' से वेदों में ऋषियों ने जो दार्शनिक चिंतन का आरंभ किया था, उसी का पूर्ण विकास वेदांत में हुआ, और उसी का सार लेकर नानक नं १ ॐ सति नामु करता पुरुष निरभौ निरबैर अकाल सूरति अजूनि सैभं की भक्ति का प्रसार किया और एकेश्वरवाद का जो आकर्षण इस्लाम में था, उसके स्वधर्म में ही लोगों को दर्शन कराए, क्योंकि वे यह नहीं चाहते थे कि लोग
( १ ) एका माई जुगत वियाई, तिन एक संसारी, एक भंडारी,
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चेले परवान ।
लाए दीवान ॥
- जपजी, 'ग्रंथ', पृ० २
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