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नागरीप्रचारिणी पत्रिका
ग्रहण करना लिखा था। यह बालक नानक था। उसके पिता का नाम कल्लू और माता का तृप्ता था। बहुत छोटो अवस्था में उसका विवाह कर दिया गया था। उसकी स्त्री का नाम सुलक्षणा था जिससे आगे चलकर उसके श्रीचंद और लक्ष्मीचंद नामक दो पुत्र हुए। श्रीचंद ने सिखों की उदासी नामक एक शाखा का प्रवर्तन किया जो गुरु नानक को भी मानते हैं और अपने आपको हिंदू धेरे से अलग नहीं समझते। लक्ष्मीचंद के वंश के लोग आज भी पंजाब के भिन्न-भिन्न भागों में पाए जाते हैं ।
नानक सांसारिक दृष्टि से बहुत बोदा समझा जाता था। चटसार ( पाठशाला) में उसने कुछ नहीं सीखा। वह गृहस्थी के कुछ काम का न पाया गया। खेत रखाने भेजा जाता तो खेत चराकर प्राता; बीज बोने के बदले वह किसी भूखे को दे आता। उसके बाप ने चाहा कि वह दूकान करे परंतु दूकान भी थोड़े ही दिनों में चैपिट हो गई। अंत में उससे निराश होकर उसके बाप ने उसे उसकी बहिन ननकी के यहाँ भेज दिया। ननकी का पति जयराम सरकारी नौकरी पर था। उसके कहने-सुनने से नानक को नवाब ने भंडारी का पद दे दिया। अपनी बहिन का मन रखने के लिये नानक अपने नए काम को बड़ी लगन के साथ करने लगा। ऐसा मालूम होता था कि नानक प्रब दुनिया में किसी काम का हो जायगा। परंतु लिखा कुछ और ही था। साधु-संतों की सेवा उसने अब भी न छोड़ी थी। उनका सत्कार करने के लिये वह सदा मुट्ठी खोले रहता था। इससे लोगों को उस पर संदेह होने लगा। उस पर सरकारी रुपए हड़प जाने का अभियोग लगाया गया। जाँच होने पर उसका पाई पाई का हिसाव ठोक निकला । उसके मान. की तो रक्षा हो गई पर उसका उचटा हुआ मन फिर दुनिया के धंधे में लगा नहीं; क्योंकि उसके भीतर की आँखें
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