________________
६३
हिंदी काव्य में निर्गुण संप्रदाय
देश के कोने कोने में कबीरपंथी लोग पाए जाते हैं । बहुत कुछ लोग ऐसे भी हैं जो कबोर पंथ से अपना संबंध भूल गर हैं । पहाड़ के डेम प्राय: निरंकारी हैं । उनकी पूजा में कबीर का नाम आता पहाड़ में प्रचलित झाड़-फूँक के मंत्रों में कबीर की गिनती सिद्धों में की गई है ।
है ।
कबीर पढ़े लिखे नहीं थे । उन्होंने स्वयं कहा है 'विद्या न पढ़, वाद नहिं जान'" I अतएव उनकी कविता साहित्यिक नहीं है । उसमें सत्यनिष्ठा का तेज, दृढ़ विश्वास का बल और सरल हृदयता का सौंदर्य है । बाबू श्यामसुंदरदास द्वारा संपादित कबीर ग्रंथावली में आई हुई साखी, पद और रमैणी में उनकी निर्गुण वाणो बहुत कुछ प्रामाणिक है । संपूर्ण बीजक भी प्रामाणिक नहीं जान पड़ता । उनकी कुछ कविताओं का संग्रह सिखों के आदि ग्रंथ में भी हुआ है । इनके अतिरिक्त भी और कई ग्रंथ कबीर के नाम से प्रचलित है जो कबीर के नहीं हो सकते I उनके बहुत से ग्रंथ धर्मदासी शाखा के महंतों और साधुओं के बनाए हुए हैं । उनके ग्रंथों की प्रामाणिकता का विषय निर्गुण साहित्य नामक अध्याय में किया जायगा ।
धर्मदासजी की कविता में यद्यपि वह ओज और तीक्ष्णता नहीं है जो कबीर की कविता में, फिर भी वह कबीर की कविता से अधिक मधुर और कोमल है। उन्होंने अधिकतर प्रेम की पोर की अभिव्यंजना की है । उनकी शब्दी का कबीरपंथ में बहुत मान होता है । कबीर की मृत्यु के इक्कीस वर्ष बाद सं० १५२६ ( १४६८ ई० ) में लाहौर के समीप तलवंडी नामक एक छोटे से गाँव में एक बालक का जन्म हुआ जिसके भाग्य में कबीर के सत्य-प्रसारक आंदोलन के नेतृत्व का भार
३. नानक
१ ) क० प्र०, पृ० ३२२, १८७ ।
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com