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नागरीप्रचारिणो पत्रिका
कबर अब तक विद्यमान है । कहा जाता है कि राजा वीरसिंह की इच्छा कवर को खोदकर हिंदू प्रथा के अनुसार उनके शत्रु का दाह करने की थी, परंतु उसमें वे सफल नहीं हुए । इस संबंध में भी और भी कई स्थान कहे जाते हैं ।
कबीर का एक अलग पंथ चला। उनके शिष्यों में हिंदू-मुसलमान दोनों सम्मिलित थे । बड़े बड़े राजा नवाब ने अपने आत्मा की रक्षा की आशा से उनकी शरण ली । बवेत राजा वीरसिंह और बिजली खाँ नवाब दोनों उनके चेले थे । उनके अन्य चेलों में धर्मदास, सुरत गोपाल, जागूदास और भगवानदास ( भागूदास ) प्रसिद्ध हैं । उनकी मृत्यु के बाद कबीरपंथ की दो प्रधान शाखाएँ हो गई । काशीवाली शाखा की गद्दों पर सुरत गोपान बैठे और बांधवगढ़ की गद्दो पर धर्मदास । सुरत गोपाल ब्राह्मण थे । इसके अतिरिक्त उनके बारे में और कुछ नहीं मालूम है । धर्मदास बांधव गढ़ के वैश्य थे । कबीर से उनकी भेंट पहले-पहल वृंदावन में हुई थी । वहाँ उनके ऊपर कबीर के उपदेशों का कुछ असर नहीं हुआ । परंतु एक बार फिर कबीर ने स्वयं बांधवगढ़ जाकर उनको उपदेश दिया और वे कबीर के बड़े भक्तों में से हो गए। धर्मदासियों का प्रधान स्थान धाम खेड़ा ( छत्तीसगढ़ ) है । किंतु हाटकेश्वर में भी उनकी एक प्रशाखा है। मंडला, कबरधा ( दोनों मध्यप्रांत में ), धनैाटो तथा अन्य कई स्थानों में भी कबीरपंथ की छोटी मोटी शाखाएँ हैं ।
कबीर के मत का प्रचार बहुत दूर दूर तक हुआ । लेकिन अधिकतर हिंदुओं में ही, मुसलमानों में नहीं । मगहर में भी कबीर का एक स्थान है परंतु वहाँ पर वे साधारण 'पार' समझे जाते हैं, जब कि अन्य कबीर पंथी उन्हें साक्षात् परमात्मा मानते हैं। दिल्ली के आसपास के जुलाहे अपने को कबोरवंशी कहते हैं किंतु
कबीरपंथी नहीं ।
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