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नागरीप्रचारिणी पत्रिका के माथ था जिनके समय के प्रारंभ तथा कबीर के समय के अंत में प्रार्धा शताब्दी से अधिक का अंतर नहीं था। उनसे इस संबंध में व्यासजी ने जो कुछ सुना होगा, वह विश्वसनीय होना चाहिए । व्यासजी वैकुंठवासी संतों की मृत्यु पर शोक मनाते हुए कहते हैं
सांचे साधु जु रामानंद । जिन हरिजी से हित करि जान्यो, और जानि दुख-दंद ॥ जाको सेवक कबीर धीर अति सुमति सुरसुरानंद । तब रैदास उपासिक हरि की, सूर सु परमानंद ॥ उनते प्रथम तिलोचन नामा, दुख-मोचन सुख कंद। खेम सनातन भक्ति-सिंधु रस रूप रघु रघुनंद ॥ अलि रघुवंशहिं फल्यो राधिका-पद-पंकज-मकरंद । कृष्णदास हरिदास उपास्यो, बृंदावन को चंद ॥ जिन बिनु जीवत मृतक भए हम सहत विपति के फंद ।
तिन बिन उर को सूल मिटै क्यों जिए 'व्यास' अति मंद ॥ इससे स्पष्ट है कि कबीर रामानंद के शिष्य थे ।
कबीर के शिष्य धर्मदास की वाणी से भी यही बात प्रकट होती है। कबीर के कट्टर भक्त गरीबदास भी यही कहते हैं, यद्यपि वे गुरु से चेले को अधिक महत्त्व देते हैं और उसे गुरु के उद्धार का कारण बताते हैं
गरीष रामानंद से लख गुरु तारे चेले भाइ । चेले की गिनती नहीं,-पद में रहे समाइ ॥
(१) बाबू गधाकृष्णदास ने इस पद को अपने सूरदास के जीवनचरित में उद्धत किया है। वे प्राचीन साहित्य के बड़े विद्वान् थे। खेद है कि मैं व्यासजी की बानी नहीं पा सका। राधाकृष्णदास-ग्रंथावली, प्रथम भाग, पृ० ४५४ ।
(२) 'हिरंपर-बोध', पारख अंग की साखी, ३२ ।
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