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हिंदी काव्य में निर्गुण संप्रदाय परंतु कुछ लोग रामानंद को न मानकर शेख तकी को कबीर का गुरु मानते हैं। इस मत का सबसे पहला उल्लेख खज़ोनतुल प्रासफिया में मिलता है, जिसे मौलवी गुलाम सरबर ने सन् १८६८ ई० में छपवाया था। बेस्कट साहब ने भी इस ग्रंथ के आधार पर अपने कबीर ऐंड दि कबीर पंथ में बड़े जोर शोर से इस मत का समर्थन किया है। परंतु दविस्ताँ का साक्ष्य उनकी सरगर्मी से कहीं अधिक मूल्यवान् है। इतिहासकार मुहसनफनी अकबर के समय में हुआ था। रामानंद के समय को पहले से पहले ले जाने पर भी मुहसनफनी और उनके समय में सवा सौ डेढ़ सौ वर्ष का अंतर रहता है। अतएव उन्होंने जिन जनश्रुतियों के आधार पर यह लिखा है, वे आजकल की जनश्रुतियों से अधिक प्रामाणिक हैं। शेख तकी कबीर के गुरु थे, इस संबंध में किसी इतनी प्राचीन जनप्रति का होना नहीं पाया जाता। इस बात की भी आशंका नहीं हो सकती कि मुहसनफनी ने पक्षपात के कारण ऐसा लिखा हो।
मुहसनफनी ही ने नहीं और लोगों ने भी इस बात का उल्लेख किया है कि कबीर रामानंद के चेले थे। नाभाजी ने सं० १६४२ के लगभग भक्तमाल की रचना की थी। उसमें उन्होंने स्पष्ट शब्दों में कबीर को रामानंद का चेला लिखा है। उनसे एक-दो पोढ़ी पहले ओड़छेवाले हरीराम शुक्ल हो गए थे, जो साहित्य-संसार तथा संत-समुदाय में 'व्यास' जी के नाम से प्रख्यात हैं। इनके संबंध में यह ख्याति चली आती है कि ४५ वर्ष की अवस्था में ये संवत् १६१८ में राधावल्लभी संप्रदाय के प्रवर्तक स्वामी हितहरिवंशजी के शिष्य हुए थे। हितहरिवंशजी का जन्म-संवत् देर से देर में मानने से संवत् १५५६ में ठहरता है, यद्यपि सांप्रदायिक मत के अनुसार उनका जन्म १५३० में हुआ था। अतएव व्यासजी का संसर्ग ऐसे लोगों
(१) 'शिवसिंहसरोज', पृ० १०७ ।
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