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नागरीप्रचारिणी पत्रिका
खाज सफल हुई और जनाकीर्ण काशी में उनको एक ऐसा आदमी मिला, जो जाति-पाँति के अहंकार से दूर था, परमात्मा के सम्मुख मनुष्य मनुष्य में किसी भेद-भाव को न मानता था, और जो अपने ज्ञान-बल से कबीर की महती आकांक्षा को पूर्ण कर सकता था, जिसके उपदेश से कबीर को मालूम हुआ कि जिसको ढूँढ़ने के लिये हम बाहर बाहर भटकते फिरते हैं वह परमात्मा तो हमारे ही शरीर में निवास करता है ' I यह साधु स्वामी रामानंद थे । कहते हैं कि रामानंद पहले मुसलमान को चेला बनाने में हिचके । इस पर कबीर ने एक युक्ति साची । रामानंदजी पंचगंगा घाट पर रहते थे और सदैव ब्राह्म मुहूर्त में गंगास्नान करने जाया करते थे । एक दिन जब कबीर ने देख लिया कि रामानंद स्नान करने के लिये चले गए तो सीढ़ी पर लेटकर वह उनके लौटने की बाट जोहने लगा । रामानंद लौटे तो उनका पाँव कबीर के सिर से टकरा यह सोचकर कि हमसे बिना जाने किसी का अपकार हो गया है, रामानंद 'राम राम' कह उठे । कबीर ने हर्षोत्फुल्ल होकर कहा कि किसी तरह छापने मुझे दीक्षित कर अपने चरणों में स्थान तो दिया । उसके इस अनन्य भाव से रामानंद इतने प्रभावित हो गए कि उन्होंने उसे तत्काल अपना शिष्य बना लिया ।
गया ।
मुहसिनफनी काश्मीरवाले के लिखे फारसी इतिहास ग्रंथ तवारीख दविस्ताँ से भी यही बात प्रकट होती है । उसमें लिखा है कि कबीर जोलाहा और एकेश्वरवादी था । अध्यात्म-पथ में पथप्रदर्शक गुरु की खोज करते हुए वह हिंदू साधुओं और मुसलमान फकीरे के पास गया और कहा जाता है कि अंत में रामानंद का चेला हो गया २ ।
(१) जिस कारनि तटि तीरथ जाहीं । रतन पदारथ घटही माहीं । -- वही, १०२, ४२ ।
( २ ) 'कबीर ऐंड दि कबीर पंथ' में उद्धृत, पृ० ३७ ।
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