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हिंदी काव्य में निर्गुण संप्रदाय
४६ भक्ति कम, अहंकार अधिक था । परंतु कबीर को ऐसे लोगों से क्या मतलब था ? उनसे वे क्या सीखते ? हाँ, उन्हें सिखा अवश्य सकते थे। कबीर कुछ दिन मानिकपुर में भी रहे। शेख तकी की प्रशंसा सुनकर वे वहाँ से ऊँजी जौनपुर होते हुए फंसी गए। फँसी में भी वे कुछ दिन तक रहे। उन्हें शेख तकी को बतलाना पड़ा कि परमात्मा सर्वव्यापक है; अकर्दी सकर्दी को जताना पड़ा कि तुम कुर्बानी जिबह इत्यादि करके पाप कमा रहे हो, किसी जमाने में भी ये काम हलाल नहीं हो सकते। वे गुरु बनने नहीं पाए थे पर क्या करते, उनसे रहा नहीं गयारे । वे तो स्वयें ऐसे एकाध मादमी को ढूँढ़ रहे थे जो रामभजन में शूर हो । उनको अनुभव हुआ कि परमात्मा के दर्शनों के लिये वन में ही कोई अनुकूल परिस्थिति नहीं होती। अंत में उनकी भी
(१) थोरी भगति बहुत अहँकारा । ऐसा भक्ता मिले अपारा ॥
-क० प्र०, पृ० १३२, १३७ । (२) घट घट अविनासी अहै सुनहु तकी तुम सेख ।
-'बीजक', रमैनी ६३. मानिकपुरहि कबीर बसेरी । मदहति सुनी सेख तकि केरी ॥ ऊजी सुनी जवनपुर थाना । मूंसी सुनि पोरन के नामा ॥ एकइस पीर लिखे तेहि ठामा। खतमा पढ़े पैगंबर नामा ॥ सुनत बोल मोहि रहा न जाई। देखि मुकर्बा रहा भुखाई ॥ नबी हबीबी के जो कामा । जह लौं अमल सबै हरामा ।
सेख श्रको सकी तुम मानहु बचन हमार । आदि अंत और जुग जुग देखहु रष्टि पसार ॥
-वही, रमैनी ४८। (३) कहै कबीर राम भजवें को एक श्राध कोइ सूरा रे ।
-क. ग्रं॰, पृ० ११५, ८५ (४) घर तजि बन कियों निवास । घर बन देखों दोउ निरास ।
-वही, पृ. ११३, ७६ ।
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