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भारतीय कला में गंगा और यमुना चतुर्भुज त्रिनेत्रं च कपर्दमुकुटान्वितम् । अभयं दक्षिणं हस्त कटक वामहस्तकम् ।। कपर्दमुकुटं तेन गृहीतं जाह्नवीयुतम् । वामदक्षिणहस्तौ तु कृष्णपरशुसंयुतम् ।। अभयं पूर्ववत्प्रोक्तं कपर्दोपेतहस्तकम् । तस्य वामे भवानी तु कारयेल्लक्षणान्विताम् ॥ जान्वन्तं वापि नाभ्यन्तं भागीरथ्यास्तु मानकम् । प्रलम्बकजटोपेतमुष्णीषं जलहस्तकम् ।। द्विभुजं च त्रिनेत्रं च वल्कलाम्बरसंयुतम् । एवं गङ्गाधरं प्रोक्त चण्डेशानुग्रहं शृणु ।
-पूर्वकारणागम, पटल ११ । दक्षिण भारत में जटा में गंगा को धारण किए नटराज शिव की मूर्तियों का वर्णन मिलता है। राजपूत चित्रकला में भी चतुर्भुजी मकरवाहिनी गंगा का चित्र मिलता है। उसी भाव को लेकर आधुनिक काल में रविवर्मा ने शिव की जटा में स्थित गंगा के चित्रों को धार्मिक जनों के सम्मुख उपस्थित किया है।
इन उपर्युक्त विस्तृत विवरणों के आधार से यही प्रकट होता है कि गंगा तथा यमुना की तक्षण-कला में उत्पत्ति गुप्त-काल में ही हुई। इस समय से पूर्व यक्षियों की जितनी मकरवाहिनी मूर्तियाँ मिलो हैं उनमें स्पष्टीकरण नहीं हुआ था। गंगा का वाहन मकर होने के कारण उन यक्षियों से गंगा की समानता बतलाना युक्तिसंगत नहीं है। यक्ष का संबंध जल से था तथा मकर भी जलजंतु था, इसलिये मकरवाहिनी यक्षी के द्वारा उनका जल से संबंध स्पष्ट प्रकट होता है। इस प्रकार की यती-मूर्ति से गंगा की उत्पत्ति मानना
(१) गोपीनाथ राव-एलेमेंट्स श्राफ हिंदू आइकानोग्राफी, जि० २, भा० १, पृ० २२६ ।
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