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नागरी प्रचारिणी पत्रिका
उचित नहीं प्रतीत होता । विष्णुधर्मोत्तर के वर्णन से ज्ञात होता है कि वरुण के साथ गंगा तथा यमुना की मूर्तियाँ तैयार की जाती थीं; परंतु समयांतर में वरुण एक दिकपाल रूप में माने जाने लगे अतएव गुप्तकालीन मंदिरों में उनके साथ साथ इनका भी द्वारदेवता ( द्वारपाल नहीं) के रूप में स्थान माया जाता है । पीछे गंगा को सुखदा, माचदा मानकर समस्त लोग उनकी पृथक् पूजा करने लगे जिससे मध्यकाल में गंगा की स्वतंत्र मूर्तियाँ निर्मित होने लगीं । पौराणिक वार्ता तथा कुछ शिल्प-ग्रंथों के आधार पर गंगा को शिव की जटा में स्थान दिया जाने लगा, जिसका वर्णन ऊपर किया जा चुका है ।
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