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भारतीय कला में गंगा और यमुना अतिरिक्त विष्णुधर्मोत्तर नामक ग्रंथ में भी इसका नाम गंगा ही लिखा मिलता है' ।
इन समस्त विवरणों के आधार पर यह ज्ञात होता है कि गंगा की मूर्ति तीन प्रकार की मिलती है - ( १ ) वरुण के साथ गंगा, ( २ ) द्वार - देवता के रूप में गंगा तथा ( ३ ) स्वतंत्र गंगा की मूर्ति ।
तीसरे प्रकार की मूर्ति गुप्त काल के पश्चात् मध्ययुग में तैयार होने लगी । इस युग में गंगा को द्वार देवता से भी अधिक महत्ता देकर दिव्य मूर्ति का रूपमय भाव पाया जाता है । तांत्रिक के द्वारा गंगा की विशेष पूजा होती थी । मंत्रसार में गंगा का संबंध शिव तथा विष्णु से बतलाया गया है ( ओम् नमः शिवायै नारायणै दशरायै गंगायै स्वाहा ) । माता गंगा को, ध्यान के साथ र आवाहन करके, सुखदा तथा मोक्षदा का नाम दिया गया हैसद्यः पातक संहन्ति सद्यो दुःखविनाशिनी । सुखदा मोक्षदा गंगा गंगैव परमा गतिः ॥
प्राचीन भारत के मध्यकाल में गंगा की अनेक मूर्तियाँ, स्वतंत्र या शिव के साथ मिलती हैं। ये ईसा की आठवीं शताब्दी में इलोरा ३ तथा राजशाही ( उत्तरी बंगाल) में मिली हैं I राजशाही की मूर्ति है तेा खंडित परंतु आभूषणयुक्त और सुंदर दीख पड़ती है । यह गंगा-मूर्ति वारेंद्र सोसाइटी के संग्रहालय में
(१) भा० ३, अ० ५२ । (२) ध्यानमंत्र इस प्रकार है
चतुर्भुजा त्रिनेन च सर्वाभरणभूषिता । रत्नकुम्भसिताम्भोजवरदाभय सस्कराम् ॥
(३) वरगेस - ए० एस० आई० न० आई० एस० भा० ५, चित्र
नं० १६; कुमारस्वामी यक्ष, भा० २, प्लेट २१, नं० २ ।
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