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नागरीप्रचारिणी पत्रिका विचलित नहीं होते थे और प्राय: आश्रम में ही बिचरते रहते थे। इसी कारण वे प्राश्रम-मृग भी कहलाते थे ।
(४) तपस्वी आश्रमवासी वल्कल वसन धारण करते थे और उन्हें पानी में धोकर वृत्तों की डालों पर लटका देते थे। वल्कल ले जाने के कारण रास्ते में जल के टपकने से लीक बन जाती थी।
(५ ) आश्रम के वृक्षों और पौदों को सींचने के लिये तपस्वी पतली प्रणालिकाएं बनाते थे जिनसे जल, वृक्षों और पौधों की जड़ो से होकर, बहता था।
(६) वृत्तों के पल्लव प्राकृतिक अवस्था में रक्ताभ होते हैं परंतु वही, आश्रम के यज्ञ से उत्पन्न घी के धुएँ के लगने से, अपना स्वाभाविक रंग खो देते थे।
(७) दर्भ की तेज फुनगियाँ कट जाने से वे मृगों के बच्चों के चरने योग्य हो जाते थे।
ऊपर लिखे चिह्नों से आश्रम पहचाना जा सकता था।
कालिदास के ग्रंथों में कई प्रकार के जन-विश्वास का वर्णन प्राया है। स्त्री की दाहिनी आँख का फड़कना आज-कल की ही भांति
अशुभ माना जाता था और बाई आँख का जन-विश्वास
" फड़कना शुभ समझा जाता था। पुरुष की आँखों के फड़कने का फल ठीक इसके विपरीत था। इसी प्रकार पुरुष की दाहिनी भुजा का फड़कना भला समझा जाता था। शृगाल-ध्वनि को अशुभ मानते थे। ___ जो मनुष्य अपने धन की बड़ी रखवाली करता था और सूम होता था उसके प्रति लोगों का विश्वास था कि वह मरकर सर्प होगा और अपने गाड़े धन की रक्षा करेगा । उसके मरने के बाद भी जो कोई उसके धन पर हाथ लगाएगा उसे वह काट खायगा। यह विश्वास प्राज तक नहीं मरा। यह विश्वास बड़ा प्राचीन है और
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