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भारतवर्ष की सामाजिक स्थिति
४६३ समाज में पुरुष और स्त्रियों में रमकर उनको दुर्बल बना ही रहा था। इसी लिये ता हूणों को भारत विजय करने का साहस हो सका।
इतना होने पर भी देश में सदाचार था और लोग साधारणतया धर्मपरायण थे। समाज के पूर्वोक्त अपराधो सदा सर्वत्र होते हैं और उस समय भी थे। समाज में साधारणत: वे महिलाएं थीं जो पति की अनुपस्थिति में आनंद और शृगार को छोड़ देती थीं । अपने पति के अतिरिक्त और किसी पुरुष की ओर आँख नहीं उठाती थों। विधवाएँ प्रायः पति के शव के साथ ही चिता में जलकर सती हो जाती थीं। इस प्रकार एक अपराध की जगह सैकड़ों गुण थे। इन अपराधों को कोई समाज कभी दूर नहीं कर सकता। ये क्षम्य हैं। इनके लिये समाजनीति और राजधर्म में दंड भी बड़े कठोर थे। __ प्रायः द्विज जीवन के तृतीय काल ( वानप्रस्थ आश्रम ) में नगर अथवा ग्राम छोड़कर द्विज वन में जाकर मुनिवृत्ति का आचरण
करते थे । अभिज्ञान-शाकुंतल के दो श्लोको
के आधार पर आश्रम का निम्नलिखित वर्णन किया जा सकता है
(१) तोते आश्रमवासियों के बड़े प्रिय थे और वे उनके भोज. नार्थ वृत्तों के खोखले नीवार के दानों से भर देते थे जो प्रायः वहाँ से गिरकर प्राश्रमभूमि पर बिखर जाते थे।
(२) इंगुदी के फल का व्यवहार प्राश्रमवासी खूब करते थे, जैसा उनको तोड़नेवाले पत्थरों की तेल लगी चिकनाहट से विदित होता है। इसी कारण इंगुदी के पेड़ को वापस तरु भी कहते थे ।
(३) पाश्रमवासियों के अहिसक व्यवहार से वन-मृग इस प्रकार विश्वस्त हो जाते थे कि अस्वाभाविक रथध्वनि सुनकर भी वे
(.) मेघदूत, उत्तर मेघ, यक्षपत्नी । (२) अभि. शाकुं०, १,१४-१५ ।
प्याश्रम
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