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नागरीप्रचारिणी पत्रिका
उनके बदन में लगे अंगराग आदि सुगंधित द्रव्यों से बराबर सुरभित होती रहती थीं। इस प्रकार समाज में पण्यस्त्रियों और उनसे मिलनेवाले नागरिकों की संख्या इतनी थी कि उन्हें कोई कवि अपने काव्य में वर्णित कर सकता था । उज्जयिनी के महाकाल के मंदिर में वे गाती और नाचती थीं । श्रावण मास में शिव के मंदिर में नृत्य आदि करना आज भी कुछ धार्मिक सा हो गया है और बहुत संभव है कि आधुनिक देवदासी प्रथा भी इन्हीं वेश्याओं को प्राचीन काल में मंदिरों में नचानेवाली प्रथा से निकली हो । यह ध्यान देने की बात है कि ये वेश्याएँ मंदिरों में केवल कुछ घंटों के लिये नहीं वरन् सदा रहती और नाचती गाती थीं, जैसा कि कवि के वर्णन से ज्ञात होता है
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इसी प्रकार अभिसारिकाओं और असतियों की भी समाज में एक संख्या थी । कालिदास ने कई बार उनका उल्लेख किया है । अभिसारिकाएँ २ रात के अँधेरे में अन्य पुरुषों से मिलती थीं और दूतियाँ ३ इनके इस प्रकार के गुह्य प्रेम को बढ़ाती थीं। उनका काम समाज के दूषणों का वर्धन करना था । आज भी उनकी संख्या कम नहीं है । समाज में चोरों (कुंभारक ) और दीवार भेदनेवालों ( पाटच्चर: .) की भी स्थिति थी और उनके लिये कई प्रकार के संज्ञावाचक शब्द संस्कृत में बनकर प्रयुक्त होने लगे थे । कभी कभी मुक्त अभियुक्तों से पुरस्कार पाकर नागरिक की स्थिति के व्यक्ति भी अन्य साधारण पुलिस कर्मचारियों के साथ मद्यपान करते थे । इस प्रकार रिश्वत भी कुछ न कुछ ली जाती होगी और मद्यपान तो सारे
(१) मेघदूत, ३७ ।
( २ ) रघु०, १६, १२ ।
( ३ ) वही, १३, १८ ।
( ४ ) श्रभि० शाकुं०, ६ ।
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