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नागरीप्रचारिणी पत्रिका कालिदास के समय में ही नहीं प्रत्युत सदा भारतवर्ष के भोजन में प्रचलित रहा है। मृच्छकटिक नाटक का विदूषक भी वसंतसेना के प्रासाद में भेजनार्थ निमंत्रित होने के लिये मरता है-वहाँ भी मांस बनाया जा रहा है। ऐसा प्रतीत होता है कि प्राचीन काल में ब्राह्मण भले प्रकार मांस का भोजन करते थे। इसी कारण कभी कभी तो इस प्रकार के भोजन को, जैन भोजन के विरोध में, ब्राह्मण अथवा वैदिक भोजन कहा गया है। आखेट से ही मांस की प्राप्ति नहीं होती थी। कालिदास के उल्लेख से पता चलता है कि बूचरखाने भी देश में थे जहाँ पशुओं का नित्य वध होता था । यही मांस रोज बाजारों में बिकने जाता होगा जिसे आर्य ब्राह्मण खाते होंगे। मनुस्मृति में भी आठ प्रकार के कसाइयों का उल्लेख है। अशोक के प्रथम शिलालेख से तो ज्ञात होता है कि बौद्ध होने के पूर्व उसके भोजनालय के लिये प्रतिदिन सहस्रों पशु मारे जाते थे और पीछे केवल दो मयूर और एक मृग मारे जाने लगे थे जिनको उसने बाद को देश भर में हिंसा बंद करते समय अवष्य कर दिया था। बूचरखाने के संबंध में कालिदास का उल्लेख इस प्रकार है-"ौर श्रीमान् तो बूचरखाने ( सूना ) के ऊपर चारों ओर चक्कर काटते हुए ग्रामिषलोलुप किंतु सभीत पक्षी की भांति हैं।"
मद्यपान उस समय देशव्यापी हो गया था। कालिदास ने मद्यपान के कितने ही हवाले दिए हैं जिनके परिणाम नित्य दृष्टिगोचर
होते रहते थे। पुरुष ही नहीं, स्त्रियों भी काफी
मद्यपान करती थीं। ऐसा विश्वास था कि मद्यपान से त्रियों पर एक विशेष सौदर्य आता है (माघ-चारुता वपुरभूषयदासां तामनूननवयौवनयोगः । तं पुनर्मकरकेतनलक्ष्मीस्तां मदो (१) भवानपि सूनापरिसरचर इव गृध्र आमिषलोलुप भीरुकश्च ।
-मालविका०, २, विदू० । (२) मदः किल स्त्रीजनस्य मण्डनमिति । -वही, ३, इरावती।
मद्यपान
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