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भारतवर्ष की समाजिक स्थिति
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निकालती थीं और देवताओं के भोजनार्थ मध्वमृत प्राप्त होता था । मधु से अपनी तृप्ति तो होती ही थी, यह देवताओं के भी काम में आता था और इससे अतिथि सत्कार होता था । राजा के बाहर निकलने के समय जैसे आज गाँव के लोग नजर लेकर उससे मिलते हैं वैसे ही उस समय वृद्ध घोष भेंट के रूप में घी-मक्खन लेकर उपस्थित होते थे । ये घोष प्राचीन और अर्वाचीन आभीर थे जो आधुनिक अहीरों अथवा ग्वालों की भाँति बड़े समुदाय में गाएँ पालते थे और उनके दूध से घी-मक्खन आदि चीजें तैयार करते थे । खीर को 'पयश्चरुम्' भी कहते थे जिससे भरे स्वर्ण-भांडों का हवाला कालिदास के ग्रंथों में मिलता है ।
शिखरिणी एक अन्य प्रकार की बड़ी स्वादिष्ठ वस्तु थी जो घी, चीनी और विविध मसालों से तैयार की जाती थी । यह कदाचित् कालिदास के समय के नित्य भोजन का एक अंग था। भोजन में मसालों का भी उपयोग होता था । इन मसालों में से कम से कम दो के नाम हमें कवि के ग्रंथों में मिल जाते हैं। वे हैं लौंग और इलायची ।
मांस भी उस समय के भोजन का एक मुख्य अंग प्रतीत होता आखेट में जीव-हिंसा निरर्थक नहीं की जाती थी; शास्त्रानुमे।दित मृगों आदि का मांस सारे देश में राष्ट्र के भोजन के लिये प्रचुर मात्रा में प्रयुक्त होता था । आश्चर्य यह है कि ब्राह्मण तक इस भोजन से वंचित नहीं थे। अभिज्ञान शाकुंतल का विदूषक एक स्थल पर कुछ खेद के साथ कहता है – “समय भोजन मिलता है; वह भी बहुधा लोहदंड पर भुने हुए मांस का ही होता है ।" यह
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( १ ) रघु०, १, ४५ - हैयङ्गवीनमादाय घोषवृद्धानुपस्थितान् । (a) famiro, 2, fazo 1
( ३ ) अनियत वेलं शूल्यमांसभूयिष्ठ श्राहारो भुज्यते । - श्रभि० शाकु २, विदू० ।
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